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राम-कथा :- उत्तरकाण्ड


रावण के पूर्व के राक्षसों के विषय में

श्रीराम का राज्य अयोध्या में स्थापित हो गया तो एक दिन समस्त ऋषि-मुनि श्रीरघुनाथजी का अभिनन्दन करने के लिये अयोध्यापुरी में आये। श्रीरामचन्द्रजी ने उन सबका यथोचित सत्कार किया। वार्तालाप करते हुये अगस्त्य मुनि कहने लगे, "युद्ध में आपने जो रावण का संहार किया, वह कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु द्वन्द युद्ध में लक्ष्मण के द्वारा इन्द्रजित का वध सबसे अधिक आश्‍चर्य की बात है। यह मायावी राक्षस युद्ध में समस्त प्राणियों के लिये अवध्य था।"

उनकी बात सुनकर रामचन्द्रजी को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। वे बोले, "मुनिवर! रावण और कुम्भकर्ण भी तो महान पराक्रमी थे, महोदर, प्रहस्त, विरूपाक्ष भी कम वीर न थे, फिर आप केवल इन्द्रजित मेघनाद की ही इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं?"

इस पर अगस्त्य मुनि बोले, "इस प्रश्‍न का उत्तर देने से पहले मैं तुम्हें रावण के जन्म, वर प्राप्ति आदि का विवरण सुनाता हूँ। ब्रह्मा जी के पुलस्त्य नामक पुत्र हुये थे जो उन्हीं के समान तेजस्वी और गुणवान थे। एक बार वे महगिरि पर तपस्या करने गये। वह स्थान अत्यन्त रमणीक था। इसलिये ऋषियों, नागों, राजर्षियों आदि की कन्याएँ वहाँ क्रीड़ा करने आ जाती थीं। उन कन्याओं की उपस्थिति के कारण उनकी तपस्या में विघ्न पड़ता था। उन्होंने उन्हें वहाँ आने से मना किया। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने शाप दे दिया कि कल से जो कन्या यहाँ मुझे दिखाई देगी, वह गर्भवती हो जायेगी। शेष सब कन्याओं ने तो वहाँ आना बन्द कर दिया, परन्तु राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या शाप की बात से अनभिज्ञ होने के कारण उस आश्रम में आ गई और महर्षि के दृष्टी पड़ते ही गर्भवती हो गई। जब तृणबिन्दु को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने कन्या को पत्‍नी के रूप में महर्षि को अर्पित कर दिया। इस प्रकार विश्रवा का जन्म हुआ जो अपने पिता के समान वेद्‍‍विद और धर्मात्मा हुआ। महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का विवाह विश्रवा से कर दिया। उनके वैश्रवण नामक पुत्र हुआ। वह भी धर्मात्मा और विद्वान था। उसने भारी तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और इन्द्र तथा वरुण के सद‍ृश लोकपाल का पद पाया। फिर उसने त्रिकूट पर्वत पर बसी लंका को अपना निवास स्थान बनाया और राक्षसों पर राज्य करने लगा।"

श्रीराम ने आश्‍चर्य से पूछा, "तो क्या कुबेर और रावण से भी पहले लंका में माँसभक्षी राक्षस रहते थे? फिर उनका पूर्वज कौन था? यह सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है?"

अगस्त्य जी बोले, "पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने अनेक जल जन्तु बनाये और उनसे समुद्र के जल की रक्षा करने के लिये कहा। तब उन जन्तुओं में से कुछ बोले कि हम इसका रक्षण (रक्षा) करेंगे और कुछ ने कहा कि हम इसका यक्षण (पूजा) करेंगे। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि जो रक्षण करेगा वह राक्षस कहलायेगा और जो यक्षण करेगा वह यक्ष कहलायेगा। इस प्रकार वे दो जातियों में बँट गये। राक्षसों में हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तपस्या करने चला गया, परन्तु हेति ने भया से विवाह किया जिससे उसके विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्युत्केश के सुकेश नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन पुत्र हुये। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों का प्रेम अटूट हो और हमें कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। उन्होंने विश्‍वकर्मा से एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनाने के लिये कहा। इस पर विश्‍वकर्मा ने उन्हें लंकापुरी का पता बताकर भेज दिया। वहाँ वे बड़े आनन्द के साथ रहने लगे। माल्यवान के वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्र हुये। सुमाली के प्रहस्त्र, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्‍व, संह्नादि, प्रधस एवं भारकर्ण नाम के दस पुत्र हुये। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुये। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्‍वासन दिया कि हे ऋषियों! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।

"जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्‍वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुये राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्यागकर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ।

राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।"




रावण के जन्म की कथा

अगस्त्य मुनि ने कहना जारी रखा, "पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई और उन्हें अपने अभिप्राय से अवगत कराया। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुनकर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसे दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुनकर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।

"इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव रखा गया। उसके पश्‍चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुये। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और कुम्भकर्ण ने वर्षों तक सोते रहने का वरदान पाया।

"फिर दशग्रीव ने लंका के राजा कुबेर को विवश किया कि वह लंका छोड़कर अपना राज्य उसे सौंप दे। अपने पिता विश्रवा के समझाने पर कुबेर ने लंका का परित्याग कर दिया और रावण अपनी सेना, भाइयों तथा सेवकों के साथ लंका में रहने लगा। लंका में जम जाने के बाद अपने बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज विद्युविह्वा के साथ कर दिया। उसने स्वयं दिति के पुत्र मय की कन्या मन्दोदरी से विवाह किया जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। विरोचनकुमार बलि की पुत्री वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ। कुछ समय पश्‍चात् मन्दोदरी ने मेघनाद को जन्म दिया जो इन्द्र को परास्त कर संसार में इन्द्रजित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

"सत्ता के मद में रावण उच्छृंखल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वों को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा। एक बार उसने कुबेर पर चढ़ाई करके उसे युद्ध में पराजित कर दिया और अपनी विजय की स्मृति के रूप में कुबेर के पुष्पक विमान पर अधिकार कर लिया। उस विमान का वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुये लोगों की इच्छानुसार छोटा या बड़ा रूप धारण कर सकता था। विमान में मणि और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और तपाये हुये सोने के आसन बने हुये थे। उस विमान पर बैठकर जब वह 'शरवण' नाम से प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन से होकर जा रहा था तो भगवान शंकर के पार्षद नन्दीश्‍वर ने उसे रोकते हुये कहा कि दशग्रीव! इस वन में स्थित पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा करते हैं, इसलिये यहाँ सभी सुर, असुर, यक्ष आदि का आना निषिद्ध कर दिया गया है। नन्दीश्‍वर के वचनों से क्रुद्ध होकर रावण विमान से उतरकर भगवान शंकर की ओर चला। उसे रोकने के लिये उससे थोड़ी दूर पर हाथ में शूल लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हो गये। उनका मुख वानर जैसा था। उसे देखकर रावण ठहाका मारकर हँस पड़ा। इससे कुपित हो नन्दी बोले कि दशानन! तुमने मेरे वानर रूप की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारे कुल का नाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। रावण ने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और बोला कि जिस पर्वत ने मेरे विमान की यात्रा में बाधा डाली है, आज मैं उसी को उखाड़ फेंकूँगा। यह कहकर उसने पर्वत के निचले भाग में हाथ डालकर उसे उठाने का प्रयत्न किया। जब पर्वत हिलने लगा तो भगवान शंकर ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। इससे रावण का हाथ बुरी तरह से दब गया और वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। जब वह किसी प्रकार से हाथ न निकाल सका तो रोत-रोते भगवान शंकर की स्तुति और क्षमा प्रार्थना करने लगा। इस पर भगवान शंकर ने उसे क्षमा कर दिया और उसके प्रार्थाना करने पर उसे एक चन्द्रहास नामक खड्ग भी दिया।"




रावण के जन्म की कथा (2)

अगस्त्य मुनि ने कथा को आगे बढ़ाया, "एक दिन हिमालय प्रदेश में भ्रमण करते हुये रावण ने ब्रह्मर्षि कुशध्वज की कन्या वेदवती को तपस्या करते देखा। वह उस पर मुग्ध हो गया और उसके पास आकर उसका परिचय तथा अविवाहित रहने का कारण पूछा। वेदवती ने अपने परिचय देने के पश्‍चात् बताया कि मेरे पिता विष्णु से मेरा विवाह करना चाहते थे। इससे क्रुद्ध होकर मेरी कामना करने वाले दैत्यराज शम्भु ने सोते में उनका वध कर दिया। उनके मरने पर मेरी माता भी दुःखी होकर चिता में प्रविष्ट हो गई। तब से मैं अपने पिता के इच्छा पूरी करने के लिये भगवान विष्णु की तपस्या कर रही हूँ। उन्हीं को मैंने अपना पति मान लिया है।

"पहले रावण ने वेदवती को बातों में फुसलाना चाहा, फिर उसने जबरदस्ती करने के लिये उसके केश पकड़ लिये। वेदवती ने एक ही झटके में पकड़े हुये केश काट डाले। फिर यह कहती हुई अग्नि में प्रविष्ट हो गई कि दुष्ट! तूने मेरा अपमान किया है। इस समय तो मैं यह शरीर त्याग रही हूँ, परन्तु तेरा विनाश करने के मैं अयोनिजा कन्या के रूप में जन्म लेकर किसी धर्मात्मा की पुत्री बनूँगी। अगले जन्म में वह कन्या कमल के रूप में उत्पन्न हुई। उस सुन्दर कान्ति वाली कमल कन्या को एक दिन रावण अपने महलों में ले गया। उसे देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि राजन्! यदि यह कमल कन्या आपके घर में रही तो आपके और आपके कुल के विनाश का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। वहाँ से वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा द्वारा हल से जोती जाने वाली भूमि से वह कन्या फिर प्राप्त हुई। वही वेदवती सीता के रूप में आपकी पत्‍नी बनी और आप स्वयं सनातन विष्णु हैं। इस प्रकार आपके महान शत्रु रावण को वेदवती ने पहले ही अपने शाप से मार डाला। आप तो उसे मारने में केवल निमित्तमात्र थे।

"अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथनन्दन राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कहकर राजा स्वर्ग सिधार गये।

"रावण की उद्दण्डता में कमी नहीं आई। राक्षस या मनुष्य जिसको भी वह शक्‍तिशाली पाता, उसी के साथ जाकर युद्ध करने करने लगता। एक बार उसने सुना कि किष्किन्धापुरी का राजा वालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिये जा पहुँचा। वालि की पत्‍नी तारा, तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने उसे समझाया कि इस समय वालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिये गये हुये हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं। और कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिये आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। फिर सुग्रीव ने कहा कि राक्षसराज! सामने जो शंख जैसे हड्डियों के ढेर लगे हैं वे वालि के साथ युद्ध की इच्छा से आये आप जैसे वीरों के ही हैं। वालि ने इन सबका अन्त किया है। यदि आप अमृत पीकर आये होंगे तो भी जिस क्षण वालि से युद्ध करेंगे, वह क्षण आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा। यदि आपको मरने की बहुत जल्दी हो तो आप दक्षिण सागर के तट पर चले जाइये। वहीं आपको वालि के दर्शन हो जायेंगे।

"सुग्रीव के वचन सुनकर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुँचा जहां वालि सन्ध्या कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप वालि पर आक्रमण कर दूँगा। वालि ने रावण को आते देख लिया परन्तु वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता रहा। ज्योंही उसे पकड़ने के लिये रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, सतर्क वालि ने उसे पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार वालि को अपने नखों से कचोटता रहा किन्तु वालि ने उसकी कोई चिन्ता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिये रावण के मन्त्री और अनुचर उसके पीछे शोर मचाते हुये दौड़े परन्तु वे वालि के पास तक न पहुँच सके। इस प्रकार वालि रावण को लेकर पश्‍चिमी सागर के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने सन्ध्योपासना पूरी की। फिर वह दशानन को लिये हुये किष्किन्धापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी काँख से निकालकर पूछा कि अब कहिये आप कौन हैं और किसलिये आये हैं?

"रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूँ। आपके साथ युद्ध करने के लिये आया था। वह युद्ध मुझे प्राप्त हो चुका है। मैंने आपका अद्‍भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूँ। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी देकर एक दूसरे से मित्रता स्थापित की।"




हनुमान के जन्म की कथा

यह कथा सुनकर श्रीराम हाथ जोड़कर अगस्त्य मुनि से बोले, "ऋषिवर! निःसन्देह वालि और रावण दोनों ही भारी बलवान थे, परन्तु मेरा विचार है कि हनुमान उन दोनों से अधिक बलवान हैं। इनमें शूरवीरता, बल, धैर्य, नीति, सद्‍गुण सभी उनसे अधिक हैं। यदि मुझे ये न मिलते तो भला क्या जानकी का पता लग सकता था? मेरे समझ में यह नहीं आया कि जब वालि और सुग्रीव में झगड़ा हुआ तो इन्होंने अपने मित्र सुग्रीव की सहायता करके वालि को क्यों नहीं मार डाला। आप कृपा करके हनुमानजी के बारे में मुझे सब कुछ बताइये।"

रघुनाथजी के वचन सुनकर महर्षि अगस्त्य बोले, "हे रघुनन्दन! आप ठीक कहते हैं। हनुमान अद्‍भुत बलवान, पराक्रमी और सद्‍गुण सम्पन्न हैं, परन्तु ऋषियों के शाप के कारण इन्हें अपने बल का पता नहीं था। मैं आपको इनके विषय में सब कुछ बताता हूँ। इनके पिता केसरी सुमेरु पर्वत पर राज्य करते थे। उनकी पत्‍नी का नाम अंजना था। इनके जन्म के पश्‍चात् एक दिन इनकी माता फल लाने के लिये इन्हें आश्रम में छोड़कर चली गईं। जब शिशु हनुमान को भूख लगी तो वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने के लिये आकाश में उड़ने लगे। उनकी सहायता के लिये पवन भी बहुत तेजी से चला। उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया। जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की कि देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज जब अमावस्या के दिन मैं सूर्य को ग्रस्त करने के लिये गया तो मैंने देखा कि एक दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।

"राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और राहु को साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमान जी सूर्य को छोड़कर राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमान जी के ऊपर वज्र का प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर जा गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक ली। इससे कोई भी प्राणी साँस न ले सका और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये। वे मृत हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने उन्हें जीवित कर दिया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सब प्राणियों की पीड़ा दूर की। चूँकि इन्द्र के वज्र से हनुमान जी की हनु (ठुड्डी) टूट गई थी, इसलिये तब से उनका नाम हनुमान हो गया। फिर प्रसन्न होकर सूर्य ने हनुमान को अपने तेज का सौंवा भाग दिया। वरुण, यम, कुबेर, विश्‍वकर्मा आदि ने उन्हें अजेय पराक्रमी, अवध्य होने, नाना रूप धारण करने की क्षमता आदि के वर दिया। इस प्रकार नाना शक्‍तियों से सम्पन्न हो जाने पर निर्भय होकर वे ऋषि-मुनियों के साथ शरारत करने लगे। किसी के वल्कल फाड़ देते, किसी की कोई वस्तु नष्ट कर देते। इससे क्रुद्ध होकर ऋषियों ने इन्हें शाप दिया कि तुम अपने बल और शक्‍ति को भूल जाओगे। किसी के याद दिलाने पर ही तुम्हें उनका ज्ञान होगा। तब से उन्हें अपने बल और शक्‍ति का स्मरण नहीं रहा। वालि और सुग्रीव के पिता ऋक्षराज थे। चिरकाल तक राज्य करने के पश्‍चात् जब ऋक्षराज का देहान्त हुआ तो वालि राजा बना। वालि और सुग्रीव में बचपन से ही प्रेम था। जब उन दोनों में बैर हुआ तो सुग्रीव के सहायक होते हुये भी शाप के कारण हनुमान अपने बल से अनजान बने रहे।"

हनुमान के जीवन की यह कथा सुनकर सबको बड़ा आश्‍चर्य हुआ।

जब अगस्त्य तथा अन्य मुनि अयोध्या से विदा होकर जाने लगे तो श्रीराम ने उनसे कहा, "मेरी इच्छा है कि पुरवासी और देशवासियों को अपने-अपने कार्यों में लगाकर मैं यज्ञों का अनुष्ठान करूँ। आपसे प्रार्थना है कि आप सब उन यज्ञों में अवश्य पधारकर भाग लेने की कृपा करें।"

सब ऋषियों ने उसमें भाग लेने की अपनी स्वीकृति प्रदान की। फिर वे वहाँ से विदा होकर अपने-अपने आश्रम को चले गये।




अभ्यागतों की विदाई

अब श्री रामचन्द्र जी नियमपूर्क प्रतिदिन राजसभा में बैठकर राजकाज संभालकर शासन चलाने लगे। कुछ दिन पश्‍चात् राजा जनक विदा होकर मिथिला के लिये प्रस्थान किया। इसके पश्‍चात् कैकेय नरेश युधाजित, काशिराज प्रतर्दन तथा अन्य आगत राजा महाराजा भी विनयपूर्वक अयोध्या से विदा हुये। फिर उन्होंने सुग्रीव, हनुमान, अंगद, नील, नल, केसरी कुमुद, गन्धमादन, सुषेण, पनस, वीरमैन्द, द्विविद, जाम्बवन्त, गवाक्ष, विनत, धूम्र, बलीमुख, प्रजंघ, सन्नाद, दरीमुख, दधिमुख, इन्द्रजानु तथा अन्य वानर यूथपतियों को नाना प्रकार के वस्त्राभूषण-रत्‍नादि देकर सम्मानित किया और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके उन्हें विदा किया।

फिर वे विभीषण को विदा करते हुये उनसे बोले, "राक्षसराज! तुम धर्मपूर्वक लंका पर शासन करना। तुम धर्मात्मा हो। मुझे विश्‍वास है कि तुम कभी धर्म विरुद्ध कोई कार्य नहीं करोगे। अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करना।"

विदा होने से पहले हनुमान बोले, "प्रभो! मुझे ऐसा वर दीजिये कि आपके प्रति मेरी अटूट भक्‍ति सदा बनी रहे। आपके सिवा कहीं और मेरा आन्तरिक अनुराग न हो। इस पृथ्वी पर जब तक राम कथा प्रचलित रहे, तब तक मेरे प्राण इस शरीर में ही बसे रहें।"

हनुमान की बात सुनकर श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगा लिया और बोले, "ऐसा ही होगा।" संसार में जब तक मेरी कथा प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारे प्राण भी तुम्हारे शरीर में बने रहेंगे। तुमने जो उपकार किये हैं, उनके लिये मैं सदा तुम्हारा ऋणी रहूँगा।" फिर वे सब लोग श्रीराम का गुणगान करते हुये वहाँ से विदा हुये।

विभीषण, सुग्रीव, हनुमान आदि के विदा हो जाने पर भरत बोले, "राघव! आपको राजसिंहासन पर बैठे एक मास हुआ है। इस अवधि में सभी लोग स्वस्थ और निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े आदमियों के पास भी मृत्यु फटकने में हिचकती है। सभी बाल-युवा नर-नारियों के शरीर हृष्ट-पुष्ट और कान्तिमय प्रतीत होते हैं। मेघ समय पर अमृत के समान जल बरसाते हैं। हवा ऐसी चलती है कि उसका स्पर्श सुखद और शीतल जान पड़ता है।"

भरत की ये बातें सुनकर श्रीराम अत्यन्त प्रसन्न हुये।




पुरवासियों में अशुभ चर्चा

जब अयोध्या में शासन करते हुये बहुत समय बीत गया तब एक दिन रामचन्द्रजी सीता के गर्भवती होने का समाचार पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये। वे सीता से बोले, "विदेहनन्दिनी! अब तुम शीघ्र इक्ष्वाकुवंश को पुत्ररत्न प्रदान करोगी। इस समय तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूरा करूँगा। तुम निःसंकोच होकर अपने मन की बात कहो।"

पति के मृदु वचन सुनकर सीताजी मुस्कुराकर बोलीं, "स्वामी! मेरी इच्छा एक बार उन पवित्र तपोवनों को देखने की हो रही है। मैं कुछ समय उन महर्षि तपस्वियों के पास रहना चाहती हूँ जो कन्द-मूल-फल खाकर गंगा के तट पर तपस्या करते हैं। कम से कम एक रात्रि वहाँ निवास करके मैं उन्हें उग्र तपस्या करते देखना चाहती हूँ। इस समय यही मेरी अभिलाषा है।"

हृदयेश्वरी की अभिलाषा जानकर रघुनन्दन बोले, "सीते! तुम्हारी अभिलाषा मैं अवश्य पूरी करूँगा। तुम निश्‍चिंत रहो। कल प्रातःकाल ही मैं तुम्हें गंगातट वासी ऋषियों के आश्रम की ओर भेजने की व्यवस्था करा दूँगा।" सीता को आश्‍वासन देकर श्रीराम राजदरबार में चले गये। राजदरबार से निवृत हो वे अपने मित्रों में बैठकर हास्यविनोद की वार्ता करने लगे। मित्रमण्डली में उनके बालसखा विजय, मधुवत्त, काश्यप, मंगल, कुल, सुराजि, कालिय, भद्र, दन्तवक्त्र और सुभागध थे। बातो ही बातों में रामचन्द्र ने पूछा, "भद्र! आजकल नगर में किस बात की चर्चा विशेषरूप से होती है? नगर और जनपद के लोग मेरे, सीता, भरत-लक्ष्मण आदि भाइयों और माता कैकेयी के विषय में क्या-क्या बातें करते हैं? प्रायः देखा जाता है कि राजा यदि आचार-विचार से हीन हो तो सर्वत्र उसकी निन्दा होती है।"

भद्र ने उत्तर दिया, "सौम्य! सर्वत्र आपके विषय में अच्छी ही चर्चा सुनने को मिलती है। दशग्रीव पर जो आपने विजय प्राप्त की है, उसको लेकर सब लोग आपकी खूब प्रशंसा करते हैं और आपकी वीरता के कहानी अपने बच्चों को बड़े उत्साह से सुनाते हैं।"

रामचन्द्र बोले, "भद्र! ऐसा नहीं हो सकता कि सब लोग मेरे विषय में सब अच्छी ही बातें कहें। कुछ ऐसी भी बातें हो सकती हैं जो उन्हें अच्छी न लगती हों। संसार में सभी प्रवृति के लोग होते हैं। इसलिये तुमने जो कुछ भी सुना हो निश्‍चिंत होकर बेखटके कहो। यदि उन्हें मुझमें कोई दोष दिखाई देता होगा तो मैं उसे दूर करने की चेष्ट करूँगा।"

यह सुनकर भद्र बोला, "वे कहते हैं कि श्रीराम ने समुद्र पर पुल बाँध कर ऐसा दुष्कर कार्य किया है जिसे देवता भी नहीं कर सकते। रावण को मारकर वानरों को भी वश में कर लिया परन्तु एक बात खटकती है। रावण को मारकर उस सीता को घर ले आये जो इतने दिनों तक रावण के पास रही। फिर सीता से घृणा करने के बजाय उन्होंने उसे कैसे अपने पास रख लिया? भला सीता का चरित्र क्या वहाँ पवित्र रहा होगा? अब प्रजाजन भी ऐसी स्त्रियों को अपने घरों में रखने लगेंगे क्योंकि जैसा राजा करता है, प्रजा भी वैसा ही करती है। इस प्रकार सारे नगर निवासी भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें करते हैं।"

भद्र की बात का अन्य साथियों ने भी यह कहकर समर्थन किया कि 'हमने भी ऐसी बातें लोगों के मुख से सुनी हैं।' सबकी बात सुनकर राजा राम ने उन्हें विदा किया और इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। फिर उन्होंने द्वारपाल को आज्ञा देकर अपने तीनों भाइयों को बुलाया। भाइयों ने आकर उन्हें सादर प्रणाम किया और देखा, श्रीराम बहुत उदास हैं तथा उनके नेत्रों में आँसू डबडबा रहे हैं। श्रीराम ने बड़े आदर से अपने भाइयों को अपने पास बिठाकर कहा, "बन्धुओं! मैंने तुम्हें इसलिये बुलाया है कि मैं तुम्हें उस चर्चा की जानकारी दे दूँ जो पुरवासियों में मेरे और सीता के विषय में चल रही है। उनमें सीता के चरित्र के विषय में घोर अपवाद फैला हुआ है और मेरे विषय में भी उनके मन में घृणा के भाव हैं। लक्ष्मण! यह तो तुम जानते ही हो कि सीता ने अपने चरित्र की पवित्रता सिद्ध करने के लिये सबके सामने अग्नि में प्रवेश किया था और उस समय स्वयं अग्निदेव ने उन्हें निर्दोष बताया था। इस प्रकार विशुद्ध आचार वाली सीता को स्वयं देवराज इन्द्र ने मेरे हाथों में सौंपा था। फिर भी अयोध्या में यह अपवाद फैल रहा है और लोग मेरी निन्दा कर रहे हैं। मैं लोक निन्दा के भय से अपने प्राणों को और तुम्हें भी त्याग सकता हूँ, फिर सीता का परित्याग करना तो मेरे लिये तनिक भी कठिन नहीं होगा। इसलिये लक्ष्मण! कल प्रातः तुम सारथी सुमन्त के साथ सीता को ले जाकर राज्य की सीमा से बाहर छोड़ आओ। गंगा के उस पार तमसा के तट पर महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है। उसके निकट उन्हें छोड़कर लौट आना। मैं तुम लोगों को अपने चरणों और जीवन की शपथ देता हूँ, मेरे निर्णय के विरुद्ध कोई कुछ मत कहना। सीता ने गंगातट पर ऋषियों के आश्रम देखने की इच्छा प्रकट की थी, वह भी पूरी हो जायेगी।"

फिर गहरी साँस भरकर नेत्रों में आये आँसू पोंछकर वे मौन हो गये।




सीता का निर्वासन

प्रातःकाल बड़े उदास मन से लक्ष्मण ने सुमन्त से सुन्दर घोड़ों से युक्‍त रथ लाने के लिये कहा। उसमें सीता जी के लिये एक सुरम्य आसन लगाने का भी आदेश दिया। सुमन्त के पूछने पर बताया कि उन्हें जानकी के साथ महर्षियों के आश्रम पर जाना है। रथ आ जाने पर लक्ष्मण सीता जी के पास जाकर बोले, "देवि! आपने महाराज से मुनियों के आश्रमों में जाने की अभिलाषा प्रकट की थी। अतएव मैं महाराज की आज्ञा से तैयार होकर आ गया हूँ ताकि आपको गंगा तट पर ऋषियों के पवित्र आश्रमों तक पहुँचा सकूँ।

लक्ष्मण के वचन सुनकर सीता जी प्रन्नतापूर्व उनके साथ चलने को तैयार हो गईं। मुनिपत्‍नियों को देने के लिये उन्होंने अपने साथ बहुत से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और नाना प्रकार के रत्‍न रख लिये। उन दोनों को रथ पर सवार कराकर सुमन्त द्रुतगति से रथ को वन की ओर ले चला। मार्ग में सीता लक्ष्मण से कहने लगी, "वीरवर! मुझे बहत से अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। मेरी दायीं आँख फड़क रही है, शरीर काँप रहा है, हृदय अस्वस्थ सा प्रतीत हो रहा है। तुम्हारे भाई कुशल से तो हैं? मेरी सब सासुएँ सानन्द तो हैं?"

सीता की अधीर वाणी सुनकर लक्ष्मण ने अपने मन की उदासी दबाकर उन्हें धैर्य बँधाया। गोमती के तट पर पहुँचकर एक आश्रम में उन्होंने रात व्यतीत की। दूसरे दिन प्रातःकाल वे आगे चले और दोपहर तक गंगा के तट पर जा पहुँचे। गंगा की जलधारा को देखते ही लक्ष्मण के नेत्रों से जलधारा बह चली और वे फूट-फूट कर रोने लगे। सीता ने चिन्तित होकर उनसे रोने का कारण पूछा। लक्ष्मण ने उनके प्रश्‍न का कोई उत्तर नहीं दिया और रथ से उतर नौका पर सवार हो सीता सहित गंगा के दूसरे तट पर जा पहुँचे।

गंगा के उस तट पर नौका से उतर लक्ष्मण सीता से हाथ जोड़कर बोले, "देवि! आज मुझे बड़े भैया ने वह कार्य सौंपा है जिससे सारे लोक में मेरी भारी निन्दा होगी। मुझे यह बताते हुये भारी पीड़ा हो रही है कि अयोध्या में आपके लंका प्रवास की बात को लेकर भारी अपवाद फैल गया है। इससे अत्यन्त दुःखी होकर महाराज राम ने आपका परित्याग कर दिया है और मुझे आपको यहाँ गंगा तट पर छोड़ जाने का आदेश दिया है। वैसे यह स्थान सर्वथा निरापद है क्योंकि यहाँ महायशस्वी ब्रह्मर्षि वाल्मीकि जी का आश्रम है। आप यहाँ उपवास परायण आदि करती हुईं धार्मिक जीवन व्यतीत करें।"

लक्ष्मण के ये कठोर वचन सुनकर जनकनन्दिनी को ऐसा आघात लगा कि वे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर चेतना आने पर बोलीं, "लक्ष्मण! क्या विधाता ने मुझे जीवन पर्यन्त दुःख भोगने के लिये ही उत्पन्न किया है? पहले मुझे राघव से अलग होकर लंका में रहना पड़ा और अब उन्होंने मुझे सदा के लिये त्याग दिया। लक्ष्मण! मेरी समझ में यह नहीं आता कि यदि मुनिजन मुझसे यह पूछेंगे कि तुम्हें श्रीराम ने किस अपराध के कारण त्यागा है तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगी? मेरी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि मैं गंगाजी में डूब कर अपने प्राण भी विसर्जन नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करने से मेरे पति का राजवंश नष्ट हो जायेगा। तुम दुःखी क्यों होते हो? तुम तो महाराज की आज्ञा का ही पालन कर रहे हो, जो तुम्हारा कर्तव्य है। जाओ, तुम लौट जाओ और सबसे मेरा सादर प्रणाम कहना।"

सीता से आज्ञा लेकर अत्यन्त दुःखी मन से लक्ष्मण मृतप्राय शरीर को ढोते हुये रथ पर बैठे और बैठते ही मूर्छित हो गये। मूर्छा दूर होने पर वे फिर आँसू बहाने लगे।

उधर सीता विलाप करती हुई चीत्कार करने लगी। दो मुनिकुमारों ने सीता को इस प्रकार विलाप करते देखा तो उन्होंने ब्रह्मर्षि वाल्मीकि के पास जाकर इसका वर्णन किया। यह समाचार सुनकर वाल्मीकि जी सीता जी के पास पहुँचे और बोले, "पतिव्रते! मैंने अपने योगबल से जान लिया है कि तुम राजा दशरथ की पुत्रवधू और मिथिलेश की पुत्री हो। मुझे तुम्हारे परित्याग की बात भी मालूम हो चुकी है। इसलिये तुम मेरे आश्रम में चलकर अन्य तपस्विनी नारियों के साथ निश्‍चिंत होकर निवास करो। वे तुम्हारी यथोचित देखभाल करेंगीं।"

मुनि के वचन सुनकर सीता ने उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और महर्षि के आश्रम में आकर रहने लगी।




लक्ष्मण की वापसी

रथ में मूर्छा भंग होने पर लक्ष्मण फिर विलाप करने लगे। सुमन्त ने उन्हें धैर्य बँधाते हुये उनसे कहा, "वीरवर! आपको सीता के विषय में संताप नहीं करना चाहिये। यह बात तो दुर्वासा मुनि ने स्वर्गीय राजा दशरथ जी को पहले ही बता दी थी कि श्रीराम सदैव दुःख उठायेंगे। उन्हें प्रियजनों का वियोग उठाना पड़ेगा। मुनि के कथनानुसार दीर्घकाल व्यतीत होने पर वे आपको तथा भरत और शत्रुघ्न को भी त्याग देंगे। यह बात उन्होंने मेरे सामने कही थी, परन्तु स्वर्गीय महाराज ने मुझे आदेश दिया था कि यह बात मैं किसी से न कहूँ। अब उचित अवसर जानकर आपसे कह रहा हूँ। आपसे अनुरोध है कि आप यह बात भरत और शत्रुघ्न के सम्मुख कदापि न कहें।"

सुमन्त की बात सुनकर जब लक्ष्मण ने किसी से न कहने का आश्‍वासन देकर पूरी बात बताने का आग्रह किया तो सुमन्त ने कहा, "एक समय की बात है, दुर्वासा मुनि महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में रहकर चातुर्मास बिता रहे थे। उसी समय महाराज दशरथ वसिष्ठ जी के दर्शनों के लिये पहुँचे। बातों-बातों में महाराज ने दुर्वासा मुनि से पूछा कि भगवन्! मेरा वंश कितने समय तक चलेगा? मेरे सब पुत्रों की आयु कितनी होगी? कृपा करके मेरे वंश की स्थिति मुझे बताइये। इस पर उन्होंने महाराज को कथा सुनाई कि देवासुर संग्राम में पीड़ित हुये दैत्यों ने महर्षि भृगु की पत्‍नी की शरण ली थी। भृगु की पत्‍नी द्वारा दैत्यों को शरण दिये जाने पर कुपित होकर भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उसका सिर काट डाला। अपनी पत्‍नी के मरने पर भृगु ने क्रुद्ध होकर विष्णु को शाप दिया कि आपने मेरी पत्‍नी की हत्या की है, इसलिये आपको मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ेगा और वहाँ दीर्घकाल तक पत्‍नी का वियोग सहना पड़ेगा। शाप की बात बताकर महर्षि दुर्वासा ने रघुवंश के भविष्य सम्बंधी बहुत सी बातें बताईं। उसमें आप लोगों को त्यागने की बात भी बताई गई थी। उन्होंने यह भी कहा था कि रघुनाथजी सीता के दो पुत्रों का अभिषेक अयोध्या के बाहर करेंगे, अयोध्या में नहीं। इसलिये विधाता का विधान जानकर आपको शोक नहीं करना चाहिये।" ये बातें सुनकर लक्ष्मण का संताप कुछ कम हुआ।

केशिनी के तट पर रात्रि बिताकर दूसरे दिन दोपहर को लक्ष्मण अयोध्या पहुँचे। उन्होंने अत्यन्त दुःखी मन से श्रीराम के पास पहुँचकर सीता के परित्याग का सम्पूर्ण वृतान्त जा सुनाया। राम ने संयमपूर्वक सारी बातें सुनीं और अपने मन पर नियन्त्रण रखते हुये राजकाज में मन लगाया।




राजा नृग की कथा

एक दिन लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा, "महाराज! आप राजकाज में इतने व्यस्त रहते हैं कि अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखते।"

यह सुनकर रामचन्द्रजी बोले, "लक्ष्मण! राजा का कर्तव्य होता है राजकाज में पूर्णतया लीन रहना। तनिक सी असावधानी हो जाने पर उसे राजा नृग की भाँति भयंकर यातना भोगनी पड़ती है।"

लक्ष्मण के जिज्ञासा करने पर उन्होंने राजा नृग की कथा सुनाते हुये कहा, "पहले इस पृथ्वी पर महायशस्वी राजा नृग राज्य करते थे। वे बड़े धर्मात्मा और सत्यवादी थे। एक बार उन्होंने तीर्थराज पुष्कर में जाकर स्वर्ण विभूषित बछड़ों युक्‍त एक करोड़ गौओं का दान किया। उसी समय उन गौओं के साथ एक दरिद्र ब्राह्मण की गाय बछड़े सहित आकर मिल गई और राजा नृग ने संकल्पपूर्वक उसे किसी ब्राह्मण को दान कर दिया। उधर वह दरिद्र ब्राह्मण वर्षों तक स्थान-स्थान पर अपनी गाय को ढूँढता रहा। अन्त में उसने कनखल में एक ब्राह्मण के यहाँ अपने गाय को पहचान लिया। गाय का नाम 'शवला' था। जब उसने गाय को नाम लेकर पुकारा तो वह गाय उस दरिद्र ब्राह्मण के पीछे हो ली। इस पर दोनों ब्राह्मणों में विवाद हो गया। एक कहता था, गाय मेरी है और दूसरा कहता कि मुझे यह राजा ने दान में दी है। दोनों झगड़ते हुये राजा नृग के यहाँ पहुँचे। राजकाज में व्यस्त रहने के कारण जब कई दिन तक नृग ने उनसे भेंट नहीं की तो उन्होंने शाप दे दिया कि विवाद का निर्णय कराने की इच्छा से आये प्रार्थियों को तुमने कई दिन तक दर्शन नहीं दिये, इसलिये तुम प्राणियों से छिपकर रहने वाले गिरगिट हो जाओगे और सहस्त्रों वर्ष तक गड्ढे में पड़े रहोगे। भगवान विष्णु जब कृष्ण के रूप में अवतार लेंगे तब वे ही तुम्हारा उद्धार करेंगे। इस प्रकार राजा नृग आज भी अपनी उस भूल का दण्ड भुगत रहे हैं। अतएव जब भी कोई कार्यार्थी द्वार पर आये, उसे सदा मेरे सामने तत्काल उपस्थित किया करो।"

राम का आदेश सुनकर लक्ष्मण बोले, "राघव! ब्राह्मणों का शाप सुनकर राजा नृग ने क्या किया?"

इस प्रश्न के उत्तर में श्रीराम ने बताया, "जब दोनों ब्राह्मण शाप देकर चले गये तो राजा ने अपने मन्त्री को भेजकर उन्हें वापिस बुलाया और उनसे क्षमायाचना की। फिर एक सुन्दर सा गड्ढा बनवाकर और अपने राजकुमार वसु को अपना राज्य सौंपकर उस गड्ढे में निवास करने लगे। ब्राह्मण के शाप का भारी प्रभाव होता है।"




राजा निमि की कथा

श्रीरामचन्द्रजी बोले, "हे लक्ष्मण! अब मैं तुम्हें शाप से सम्बंधित एक अन्य कथा सुनाता हूँ। हमारे ही पूर्वजों में निमि नामक एक प्रतापी राजा थे। वे महात्मा इक्ष्वाकु के बारहवें पुत्र थे। उन्होंने वैजयन्त नामक एक नगर बसाया था। इस नगर को बसाकर उन्होंने एक भारी यज्ञ का अनुष्ठान किया। यज्ञ सम्पन्न करने के लिये महर्षि वसिष्ठ, अत्रि, अंगिर तथा भृगु को आमन्त्रित किया। किन्तु वसिष्ठ का एक यज्ञ के लिये देवराज इन्द्र ने पहले ही वरण कर लिया था, इसलिये वे निमि से प्रतीक्षा करने के लिये कहकर इन्द्र का यज्ञ कराने चले गये।

"वसिष्ठ के जाने पर महर्षि गौतम ने यज्ञ को पूरा कराया। वसिष्ठ ने लौटकर जब देखा कि गौतम यज्ञ को पूरा कर रहे हैं तो उन्होंने क्रद्ध होकर निमि से मिलने की इच्छा प्रकट की। जब दो घड़ी प्रतीक्षा करने पर भी निमि से भेंट न हो सकी तो उन्होंने शाप दिया कि राजा निमे! तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरे पुरोहित को वरण किया है, इसलिये तुम्हारा शरीर अचेतन होकर गिर जायेगा। जब राजा निमि को इस शाप की बात मालूम हुई तो उन्होंने भी वसिष्ठ जी को शाप दिया कि आपने मुझे अकारण ही शअप दिया है अतएव आपका शरीर भी अचेतन होकर गिर जायेगा। इस प्रकार शापों के कारण दोनों ही विदेह हो गये।"

यह सुनकर लक्ष्मण बोले, "रघुकुलभूषण! फिर इन दोनों को नया शरीर कैसे मिला?"

लक्ष्मण का प्रश्‍न सुनकर राघव बोले, "पहले तो वे दोनों वायुरूप हो गये। वसिष्ठ ने ब्रह्माजी से देह दिलाने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि तुम मित्र और वरुण के छोड़े हुये वीर्य में प्रविष्ट हो जाओ। इससे तुम अयोनिज रूप से उत्पन्न होकर मेरे पुत्र बन जाओगे। इस प्रकार वसिष्ठ फिर से शरीर धारण करके प्रजापति बने। अब राजा निमि का वृतान्त सुनो। राजा निमि का शरीर नष्ट हो जाने पर ऋषियों ने स्वयं ही यज्ञ को पूरा किया और राजा को तेल के कड़ाह आदि में सुरक्षित रखा। यज्ञ कार्यों से निवृत होकर महर्षि भृगु ने राजा निमि की आत्मा से पूछा कि तुम्हारे जीव चैतन्य को कहाँ स्थापित किया जाय? इस पर निमि ने कहा कि मैं समस्त प्राणियों के नेत्रों में निवास करना चाहता हूँ। राजा की यह अभिलाषा पूर्ण हुई। तब से निमि का निवास वायुरूप होकर समस्त प्राणियों के नेत्रों में हो गया। उन्हीं राजा के पुत्र मिथिलापति जनक हुये और विदेह कहलाये।




राजा ययाति की कथा

इस आश्‍चर्यजनक कथा को सुनकर सुमित्रानन्दन बोले, "हे प्रभो! ऐसे ही शाप की कोई और कथा हो तो सुनाइये।"

लक्ष्मण के जिज्ञासा देखकर कौशल्यानन्दन बोले, "नहुष के पुत्र राजा ययाति के दो पत्‍नियाँ थीं - एक शर्मिष्ठा और दूसरी देवयानी। शर्मिष्ठा दैत्यकुल के वृषपर्वा की कन्या थी और देवयानी शुक्राचार्य की। राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। शर्मिष्ठा ने पुरु को और देवयानी ने यदु को जन्म दिया। दोनों ही बालक बड़े तेजस्वी थे। देवयानी को उचित सम्मान न पाते देख यदु ने उससे कहा कि माता! इस असम्मानजनक जीवन से क्या यह अधिक उचित न होगा कि हम अग्नि में प्रवेश करके यह जीवन समाप्त कर दें? यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगी तो भी मैं यह जीवन धारण नहीं करूँगा।

पुत्र की यह बात सुनकर देवयानी ने सारी बातें अपने पिता भृगुनन्दन शुक्राचार्य को बता दी और स्वयं भी जल मरने को तैयार हो गई। उसने कहा कि ययाति मेरा ही नहीं आपका भी अनादर करते हैं। इससे क्रोधित होकर शुक्राचार्य ने ययाति को लक्ष्य करके शाप दिया कि दुरात्मने! तुम्हारी अवस्था जराजीर्ण वृद्ध जैसी हो जाये। तुम बिल्कुल शिथिल हो जाओ। इस प्रकार शाप देकर वे मौन हो गये।

"इस शाप के फलस्वरूप राजा ययाति को ऐसी वृद्धावस्था ने आ घेरा जो दूसरे की युवावस्था से बदली जा सकती थी। ययाति ने यदु से अनुरोध किया कि तुम मुझे अपना यौवन देकर मेरी वृद्धावस्था ले लो। कुछ समय पश्‍चात् मैं तुम्हारा यौवन तुम्हें लौटा दूँगा। यह सुनकर यदु ने कहा यह सौदा आप अपने लाडले पुरु से करें। जब उन्होंने पुरु से यह बात कही तो पुरु ने राजा का अनुरोध सुनकर तत्काल वृद्धावस्था के बदले में अपना यौवन दे दिया। सहस्त्रों वर्षों तक यज्ञ आदि का अनुष्ठान करके उन्होंने पुरु को फिर उनका यौवन लौटा दिया और यदु को शाप दिया कि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है, इसलिये तुम्हारी सन्तान राजा नहीं होगी। हे सौमित्र! यह सब प्राचीन आख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया। अब हमें उसी प्रकार करना चाहिये जिससे हमें किसी प्रकार का कोई दोष न लगे।"

ये कथाएँ सुनाते-सुनाते रात्रि व्यतीत हो चली और ब्राह्म-मुहूर्त का समय हो गया।




कुत्ते का न्याय

श्रीराम के शासन में न तो किसी को शारीरिक रोग होता था, न किसी की अकाल मृत्यु होती थी, न कोई स्त्री विधवा होती थे और न माता पिताओं को सन्तान का शोक सहना पड़ता था। सारा राज्य सब प्रकार से सुख-सम्पन्न था। इसलिये कोई व्यक्‍ति किसी प्रकार का विवाद लेकर राजदरबार में उपस्थित भी नहीं होता था। किन्तु एक दिन एक कुत्ता राजद्वार पर आकर बार-बार भौंकने लगा। उसे अभियोगी समझ राजदरबार में उपस्थित किया गया। पूछने पर कुत्ते ने बताया, "प्रभो! आपके राज्य में सर्वार्थसिद्ध नामक एक भिक्षुक है। उसने आज अकारण मुझ पर प्रहार करके मेरा मस्तक फाड़ दिया है। इसलिये मैं इसका न्याय चाहता हूँ।"

कुत्ते की बात सुनकर उस भिक्षुक ब्राह्मण को बुलवाया गया। ब्राह्मण के आने पर राजा रामचन्द्र ने पूछा, "विप्रवर! क्या आपने इस कुत्ते के सिर पर घातक प्रहार किया था? यदि किया था तो इसका क्या कारण है? वैसे ब्राह्मण को अकारण क्रोध आना तो नहीं चाहिये।"

महाराज की बात सुनकर सर्वार्थसिद्ध बोले, "प्रभो! यह सही है कि मैंने इस कुत्ते को डंडे से मारा था। उस समय मेरा मन क्रोध से भर गया था। बात यह थी कल मेरे भिक्षाटन का समय बीत चुका था, तो भी भूख के कारण मैं भिक्षा के लिये द्वार-द्वार पर भटक रहा था। उस समय यह कुत्ता बीच में आ खड़ा हुआ। मैं भूखा तो था ही, अतएव मुझे क्रोध आ गया और मैंने इसके सिर पर डंडा मार दिया। मैँ अपराधी हूँ, मुझे दण्ड दीजिये। आपसे दण्ड पाकर मुझे नरक यातना नहीं भोगनी पड़ेगी।"

जब राजा राम ने सभसदों से उसे दण्ड देने के विषय में परामर्श किया तो उन्होंने कहा, "राजन्! ब्राह्मण दण्ड द्वारा अवध्य है। इसे शारीरिक दण्ड नहीं दिया जा सकता और यह इतना निर्धन है कि आर्थिक दण्ड का भार भी नहीं उठा सकेगा।"

यह सुनकर कुत्ते ने कहा, "महाराज! यदि आप आज्ञा दें तो मैं इसके दण्ड के बारे में एक सुझाव दूँ। मेरे विचार से इसे महन्त बना दिया जाय। यदि आप इसे कालंजर के किसी मठ का मठाधीश बना दें तो यह दण्ड इसके लिये सबसे उचित होगा।"

कुत्ते का सुझाव मानकर श्रीराम ने उसे मठाधीश बना दिया और वह हाथी पर बैठकर वहाँ से प्रसन्नतापूर्वक चला गया।

उसके जाने के पश्‍चात् एक मन्त्री ने कहा, "प्रभो! यह तो उसके लिये उपहार हुआ, दण्ड नहीं।"

मन्त्री की बात सुनकर श्रीराम ने कहा, "मन्त्रिवर! यह उपहार नहीं, दण्ड ही है। इसका रहस्य तुम नहीं समझ सके हो।"

फिर कुत्ते से बोले, "श्‍वानराज! तुम इन्हें इस दण्ड का रहस्य बताओ।"

राघव की बात सुनकर कुत्ता बोला, "रघुनन्दन! पिछले जन्म में मैं कालंजर के एक मठ का अधिपति था। वहाँ मैं सदैव शुभ कर्म किया करता था। फिर भी मुझे कुत्ते की योनि मिली। यह तो अत्यन्त क्रोधी है। इसका अन्त मुझसे भी अधिक खराब होगा। मठाधीश ब्राह्मणों और देवताओं के निमित्त दिये गये द्रव्य का उपभोग करता है, इसलिये वह पाप का भागी बनता है।"

यह रहस्य बताकर कुत्ता वहाँ से चला गया।




च्यवन ऋषि का आगमन

एक दिन जब श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे तो यमुना तट निवासी कुछ ऋषि -महर्षि च्यवन ऋषि जी के साथ दरबार में पधारे। कुशल क्षेम के पश्‍चात् उन्होंने बताया, "महाराज! इस समय हम बड़े दुःखी हैं। लवण नामक एक भयंकर राक्षस ने यमुना तट पर भयंकर उत्पात मचा रखा है। उसके अत्याचारों से त्राण पाने के लिये हम बड़े-बड़े राजाओं के पास गये परन्तु कोई भी हमारी रक्षा न कर सका। आपकी यशोगाथा सुनकर अब हम आपकी शरण आये हैं। हमें आशा है आप निश्‍चय ही हमारा भय दूर करेंगे।"

ऋषियों के यह वचन सुनकर सत्यप्रतिज्ञ श्री राम बोले, "हे महर्षियों! यह समस्त राज्य और मेरे प्राण भी आपके लिये ही हैं। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं उस दुष्ट के वध का उपाय शीघ्र ही करूँगा। आप मुझे उसके विषय में विस्तार से बतायें।"

च्यवन ऋषि बोले, "हे राजन्! सतयुग में लीला नामक दैत्य का पुत्र मधु बड़ा शक्‍तिशाली और बुद्धिमान राक्षस था। उसने भगवान शंकर की तपस्या करके उनसे अपने तथा अपने वंश के लिये एक ऐसा शूल प्राप्त किये था जो शत्रु का विनाश करके वापस उसके पास आ जाता था। उन्होंने यह भी वर दिया कि जिसके हाथ में जब तक यह शूल रहेगा, तब तक वह अवध्य रहेगा। उसी मधु का पुत्र लवण है जो अत्यन्त दुष्टात्मा है और उस शूल के बल पर निरन्तर हमें कष्ट देता है। वह प्रायः किसी न किसी ऋषि, मुनि, तपस्वी को अपने आहार बनाता है। वन के प्राणियों, मनुष्यादि किसी को भी वह नहीं छोड़ता।"

यह सुनकर राम ने सब भाइयों को बुलाकर पूछा, "इस राक्षस को मारने का भार कौन अपने ऊपर लेना चाहता है?"

यह सुनकर शत्रुघ्न बोले, "प्रभो! लक्ष्मण ने आपके साथ रहते हुये बहुत से राक्षसों का संहार किया है। भैया भरत ने भी आपकी अनुपस्थिति में नन्दीग्राम में रहते हुये अनेक दैत्यों को मौत के घाट उतारा है। इसलिये लवणासुर के वध का कार्य मुझे सौंपने की कृपा करें।"

श्री राम बोले, "ठीक है, तुम ही लवणासुर का संहार करो और उसे मारके मधुपुर में अपना राज्य सथापित करो। मैं तुम्हें वहाँ का राजसिंहासन सौंपता हूँ।"

फिर उन्होंने शत्रुघ्न को एक अद्‍भुत अमोघ बाण देकर कहा, "इस अद्‍भुत बाण से ही मधु और कैटभ नामक राक्षसों का विष्णु ने वध किया था। इससे लवणासुर अवश्य मारा जायेगा। एक बात का ध्यान रखना कि वह अपने शूल को महल के अन्दर एक प्रकोष्ठ में रखकर नित्य उसका पूजन करता है। जब वह तुम्हें अपने महल के बाहर दिखाई दे तभी तुम उसे युद्ध के लिये ललकारना। अभिमान के कारण वह तुमसे युद्ध करने लगेगा और शूल के लिये महल के अन्दर जाना भूल जायेगा। इस प्रकार वह रणभूमि में तुम्हारे हाथ से मारा जायेगा।"

बड़े भाई की आज्ञा पाकर शत्रुघ्न ने विशाल सेना लेकर श्रीराम द्वारा दिय गये निर्देशों के अनुसार लवणासुर को मारने की योजना बराई। उन्होंने सेना को ऋषियों के साथ आगे भेज दिया। एक माह पश्‍चात् उन्होंने अपनी माताओं, गुरुओं और भाइयों की परिक्रमा एवं प्रणाम कर अकेले ही प्रस्थान किया।




पूर्व राजाओं के यज्ञ-स्थल एवं लवकुश का जन्म

अयोध्या से प्रस्थान करने के तीसरे दिन शत्रुघ्न ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में विश्राम किया। रात्रि में उन्होंने मुनि से पूछा, "हे महर्षि! आपके आश्रम के निकट पूर्व में यह किसका यज्ञ-स्थल दिखाइ पड़ रहा है?"

महर्षि बोले, हे सौमित्र! यह यज्ञ-स्थल तुम्हारे कुल के महान राजाओं ने बनवाया था। मैं उनके विषय में बताता हूँ। तुम्हारे कुल में सौदास नाम बड़े धार्मिक राजा हुए हैं। एक दिन आखेट करते हुये उन्होंने वन में दो भयंकर दुर्धुर्ष राक्षसों को देखा। राजा ने बाण चलाकर उनमें से एक को मार गिराया। यह देखकर दूसरा राक्षस यह कहता हुआ अद‍ृश्य हो गया कि हे पापी! तूने मेरे इस मित्र को निरपराध मारा है, अतः मैं इसका प्रतिशोध अवश्य लूँगा।

कुछ समय पश्‍चात् सौदास ने अपने पुत्र वीर्यसह को राज्य देकर और वसिष्ठ जी को पुरोहित बनाकर इस स्थान पर अश्‍वमेघ यज्ञ किया। उस समय वही राक्षस अपने प्रतिशोध लेने के लिये वहाँ आया और वसिष्ठ जी का रूप बनाकर राजा से बोले कि आज मुझे माँसयुक्‍त भोजन कराओ, इसमें सोच-विचार की आवश्यकता नहीं है। राजा ने अपने रसोइये को ऐसा ही आदेश दिया। इस आदेश को सुनकर वह आश्‍चर्य में पड़ गया। तभी वह राक्षस रसोइये के वेश में वहाँ उपस्थित हुआ और भोजन में मनुष्य का माँस मिलाकर राजा को दिया। राजा ने अपनी पत्‍नी सहित वह भोजन वसिष्ठ जी को परोसा। जब वसिष्ठ जी को ज्ञात हुआ कि भोजन में मनुष्य का माँस है तो उन्होंने क्रोधित होकर राजा को शाप दिया कि राजन्! जैसा भोजन तूने मुझे प्रस्तुत किया है, वैसा ही भोजन तुझे प्राप्त होगा। तब तो राजा वीर्यसह ने भी क्रोधित हो हाथ में जल लेकर वसिष्ठ जी को शाप देना चाहा। परन्तु रानी के समझाने पर वह जल अपने पैरों पर डाल दिया। इससे उनके दोनों पैर काले हो गये। तभी से उनका नाम कल्माषपाद पड़ गया। तत्पश्‍चात् राजा और रानी ने महर्षि वसिष्ठ के पैर पकड़ कर क्षमा माँगी और पूरा वृतान्त उन्हें कह सुनाया। तब वसिष्ठ जी ने कहा कि राजन्! बारह वर्ष पश्‍चात् आप इस शाप से मुक्‍त हो जाओगे और तुम्हें इसका स्मरण भी नहीं रहेगा। हे शत्रुघ्न! इस प्रकार राजा कल्माषपाद उस शाप को भोगकर पुनः राज्य प्राप्त कर धैर्यपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। उन्हीं राजा सौदास और राजा कल्माषपाद का यह सुन्दर यज्ञ-स्थल है।"

यह कथा सुनकर शत्रुघ्न अपनी पर्णशाला में विश्राम करने चले गये।

जिस दिन शत्रुघ्न वाल्मीकि के आश्रम में पहुँचे उसी रात को सीताजी ने एक साथ दो पुत्रों को जन्म दिया। तपस्विनी बालाओं से उनके जन्म का समाचार सुनकर महर्षि ने एक कुशाओं का मुट्ठा और उनके लव लेकर मन्त्रोच्चार द्वारा उनकी भावी बाधाओं से रक्षा करने की व्यवस्था की। फिर एक का कुश और दूसरे का लव से मार्जन कराया। इस प्रकार बड़े बालक का नाम कुश और दूसरे का लव रखा गया। शत्रुघ्न को भी यह समाचार पाकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

अगले दिन प्रातःकाल सब कृत्यों से निवृत हो शत्रुघ्न मधुपुरी की ओर चल दिये। मार्ग में सात रात्रियाँ व्यतीत कर वे महर्षि च्यवन के आश्रम में पहुँचे।




मान्धाता की कथा

रात्रि होने पर शत्रुघ्न ने महर्षि च्यवन से लवणासुर के विषय में अन्य जानकारी प्राप्‍त की तथा पूछा कि उस शूल से कौन-कौन शूरवीर मारे गये हैं। च्यवन ऋषि बोले, "हे रघुनन्दन! शिवजी के इस त्रिशूल से अब तक असंख्य योद्धा मारे जा चुके हैं। तुम्हारे कुल में तुम्हारे पूर्वज राजा मान्धाता भी इसी के द्वारा मारे गये थे।"

शत्रुघ्न द्वारा पूरा विवरण पूछे जाने पर महर्षि ने बताया, "हे राजन्! पूर्वकाल में महाराजा युवनाश्‍व के पुत्र महाबली मान्धाता ने स्वर्ग विजय की इच्छा से देवराज इन्द्र को युदध के लिये ललकारा। तब इन्द्र ने उनसे से कहा कि राजा! अभी तो तुम समस्त पृथ्वी को ही वश में नहीं कर सके हो, फिर देवलोक पर आक्रमण की इच्छा क्यों करते हो? तुम पहले मधुवन निवासी लवणासुर पर विजय प्राप्त करो। यह सुनकर राजा पृथ्वी पर लौट आये और लवणासुर से युद्ध करने के लिये उसके पास अपना दूत भेजा। परन्तु उस नरभक्षी लवण ने उस दूत का ही भक्षण कर लिया। जब राजा को इसका पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर उस पर बाणों की प्रचण्ड वर्षा प्रारम्भ कर दी।

उन बाणों की असह्य पीड़ा से पीड़ित हो उस राक्षस ने शंकर से प्राप्त उस शूल को उठाकर राजा का वध कर डाला। इस प्रकार उस शूल में बड़ा बल है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मान्धाता को इस शूल के विषय में कोई जानकारी नहीं थी अतः वे धोखे में मारे गये। परन्तु तुम निःसन्देह ही उस राक्षस को मारने में सफल होगे।




लवणासुर वध

अगले दिन प्रातःकाल होने पर जब लवणासुर अपने पुर से बाहर निकला, तब ही शत्रुघ्न हाथ में धनुष बाण ले मधुपुरी को घेर कर खड़े हो गये। दोपहर होने पर वह क्रूर राक्षस हजारों मरे हुये जीवों को लेकर वहाँ आया तो शत्रुघ्न ने उसे द्वन्द्व युद्ध के लिये ललकारा। अभिमानी लवण तत्काल उनसे युद्ध करने के लिये तैयार हो गया और बोला, "तेरे भाई ने रावण को मारा था जो मेरी मौसी शूर्पणखा का भाई था। आज मैं उसका बदला तुझसस लूँगा। तुझे पता नहीं, अब तक मैं बड़े-बड़े शूरवीरों को धराशायी कर चुका हूँ तेरी भला क्या गिनती है?"

यह सुनकर शत्रुघ्न बोले, "नराधम! जब तूने उन वीरों को धराशायी किया होगा तब शत्रुघ्न का जन्म नहीं हुआ था। आज मैं तुझे अपने तीक्ष्ण बाणों से सीधा यमलोक का रास्ता दिखाउँगा।"

यह सुनते ही लवण ने क्रोध कर एक वृक्ष उखाड़ कर शत्रुघ्न को मारा, परन्तु उन्होंने मार्ग में ही उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। फिर उन्होंने उस पर बाणों की झड़ी लगा दी, किन्तु लवण इस आक्रमण से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उल्टे उसने शीघ्रता से एक भारी वृक्ष उखाड़कर उनके सिर पर मारा जिससे उन्हें क्षणिक मूर्छा आ गई। मूर्छित शत्रुघ्न को मरा हुआ समझ वह अपना आहार जुटाने और सैनिकों को खाने लग गया। अपना शूल लेने नहीं गया।

मूर्छा भंग होते ही शत्रुघ्न ने रघुनाथजी द्वारा दिया हुआ अमोघ बाण लेकर उसके वक्षस्थल पर छोड़ दिया वह बाण लवण का हृदय चीरता हुआ रसातल में घुस गया और फिर शत्रुघ्न के पास लौट आया। उधर लवणासुर ने भयंकर चीत्कार करके अपने प्राण त्याग दिये। शत्रुघ्न ने उस नगर को फिर से बसाकर उसका नाम मधुपुरी रखा। थोड़े ही दिनों में नगर सब प्रकार से सुख सम्पन्न हो गया। इस नगर को नवीन रूप पाने में बारह वर्ष लग गये। फिर एक सप्ताह के लिये शत्रुघ्न अयोध्या चले गये।




ब्राह्मण बालक की मृत्यु

एक दिन श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे तभी एक बूढ़ा ब्राह्मण अपने मरे हुये पुत्र का शव लेकर राजद्वार पर आया और 'हा पुत्र!' 'हा पुत्र!' कहकर विलाप करते हुये कहने लगा, "मैंने पूर्वजन्म में कौन से पाप किये थे जिससे मुझे अपनी आँखों से अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु देखनी पड़ी। केवल तेरह वर्ष दस महीने और बीस दिन की आयु में ही तू मुझे छोड़कर सिधार गया। मैंने इस जन्म में कोई पाप या मिथ्या-भाषण भी नहीं किया। फिर तेरी अकाल मृत्यु क्यों हुई? इस राज्य में ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं हुई। निःसन्देह यह श्रीराम के ही किसी दुष्कर्म का फल है। उनके राज्य में ऐसी दुर्घटना घटी है। यदि श्रीराम ने तुझे जीवित नहीं किया तो हम स्त्री-पुरुष यहीं राजद्वार पर भूखे-प्यासे रहकर अपने प्राण त्याग देंगे। श्रीराम! फिर तुम इस ब्रह्महत्या का पाप लेकर सुखी रहना। राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजा को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि राजा से ही कहीं कोई अपराध हुआ है।"

इस प्रकार की बातें करता हुआ वह विलाप करने लगा।

जब श्रीरामचन्द्रजी इस विषय पर मनन कर रहे थे तभी वसिष्ठजी आठ ऋषि-मुनियों के साथ दरबार में पधारे। उनमें नारद जी भी थे। श्री राम ने जब यह समस्या उनके सम्मुख रखी तो नारद जी बोले, "राजन्! जिस कारण से इस बालक की अकाल मृत्यु हुई वह मैं आपको बताता हूँ। सतयुग में केवल ब्राह्मण ही तपस्या किया करते थे। फिर त्रेता के आरम्भ में क्षत्रियों को भी तपस्या का अधिकार मिल गया। अन्य वर्णों का तपस्या में रत होना अधर्म है। हे राजन्! निश्‍चय ही आपके राज्य में कोई शूद्र वर्ण का मनुष्य तपस्या कर रहा है, उसी से इस बालक की मृत्यु हुई है। इसलिये आप खोज कराइये कि आपके राज्य में कोई व्यक्‍ति कर्तव्यों की सीमा का उल्लंघन तो नहीं कर रहा। इस बीच ब्राह्मण के इस बालक को सुरक्षित रखने की व्यवस्था कराइये।"

नारदजी की बात सुनकर उन्होंने ऐसा ही किया। एक ओर सेवकों को इस बात का पता लगाने के लिये भेजा कि कोई अवांछित व्यक्‍ति ऐसा कार्य तो नहीं कर रहा जो उसे नहीं करना चाहिये। दूसरी ओर विप्र पुत्र के शरीर की सुरक्षा का प्रबन्ध कराया। वे स्वयं भी पुष्पक विमान में बैठकर ऐसे व्यक्‍ति की खोज में निकल पड़े। पुष्पक उन्हें दक्षिण दिशा में स्थित शैवाल पर्वत पर बने एक सरोवर पर ले गया जहाँ एक तपस्वी नीचे की ओर मुख करके उल्टा लटका हुआ भयंकर तपस्या कर रहा था। उसकी यह विकट तपस्या देख कर उन्होंने पूछा, "हे तपस्वी! तुम कौन हो? किस वर्ण के हो और यह भयंकर तपस्या क्यों कर रहे हो?"

यह सुनकर वह तपस्वी बोले, "महात्मन्! मैं शूद्र योनि से उत्पन्न हूँ और सशरीर स्वर्ग जाने के लिये यह उग्र तपस्या कर रहा हूँ। मेरा नाम शम्बूक है।"

शम्बूक की बात सुकर रामचन्द्र ने म्यान से तलवार निकालकर उसका सिर काट डाला। जब इन्द्र आदि देवताओं ने महाँ आकर उनकी प्रशंसा की तो श्रीराम बोले, "यदि आप मेरे कार्य को उचित समझते हैं तो उस ब्राह्मण के मृतक पुत्र को जीवित कर दीजिये।"

राम के अनुरोध को स्वीकार कर इन्द्र ने विप्र पुत्र को तत्काल जीवित कर दिया।




राजा श्‍वेत की कथा

इन्द्र से वर प्राप्त करके रघुनन्दन राम महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुँचे। वे शम्बूक वध की कथा सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने विश्‍वकर्मा द्वारा दिया हुआ एक दिव्य आभूषण श्रीराम को अर्पित किया। वह आभूषण सूर्य के समान दीप्तिमान, दिव्य, विचित्र तथा अद्‍भुत था। उसे देखकर श्री राम ने महर्षि अगस्त्य से पूछा, "मुनिवर! विश्‍वकर्मा का यह अद्‍भुत आभूषण आपके पास कहाँ से आया? जब यह आभूषण इतना विचित्र है तो इसकी कथा भी विचित्र ही होगी। यह जानने का मेरे मन में कौतूहल हो रहा है।"

श्रीराम की जिज्ञासा और कौतूहल को शान्त करने के लिये महर्षि ने कहा, "प्राचीन काल में एक बहत विस्तृत वन था जो चारों ओर सौ योजन तक फैला हुआ था, परन्तु उस वन में कोई प्राणी-पशु-पक्षी तक भी नहीं रहता था। उसमें एक मनोहर सरोवर भी था। उस स्थान को पूर्णतया एकान्त पाकर मैं वहाँ तपस्या करने के लिये चला गया था। सरोवर के चारों ओर चक्कर लगाने पर मुझे एक पुराना विचित्र आश्रम दिखाई दिया। उसमें एक भी तपस्वी नहीं था। मैंने रात्रि वहीं विश्राम किया। जब मैं प्रातःकाल स्नानादि के लिये सरोवर की ओर जाने लगा तो मुझे सरोवर के तट पर हृष्ट-पुष्ट निर्मल शव दिखाई दिया। मैं आश्‍चर्य से वहा बैठकर उस शव के विषय में विचार करने लगा। थोड़ी देर पश्‍चात् वहाँ एक दिव्य विमान उतरा जिस पर एक सुन्दर देवता विराजमान था। उसके चारों ओर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत अनेक अप्सराएँ बैठी थीं। उनमें से कुछ उन पर चँवर डुला रही थीं। फिर वह देवता सहसा विमान से उतरकर उस शव के पास आया और उसने मेरे देखते ही देखते उस शव को खाकर फिर सरोवर में जाकर हाथ-मुँह धोने लगा। जब वह पुनः विमान पर चढ़ने लगा तो मैंने उसे रोककर पूछा कि हे तेजस्वी पुरुष! कहाँ आपका यह देवोमय सौम्य रूप और कहाँ यह घृणित आहार? मैं इसका रहस्य जानना चाहता हूँ। मेरे विचार से आपको यह घृणित कार्य नहीं करना चाहिये था।

"मेरी बात सुकर वह दिव्य पुरुष बोला कि मेरे महायशस्वी पिता विदर्भ देश के पराक्रमी राजा थे। उनका नाम सुदेव था। उनकी दो पत्‍नियाँ थीं जनसे दो पुत्र उत्पन्न हुये। एक का नाम था श्‍वेत और दूसरे का सुरथ। मैं श्‍वेत हूँ। पिता की मृत्यु के बाद मैं राजा बना और धर्मानुकूल राज्य करने लगा। एक दिन मुझे अपनी मृत्यु की तिथि का पता चल गया और मैं सुरथ को राज्य देकर इसी वन में तपस्या करने के लिये चला आया। दीर्घकाल तक तपस्या करके मैं ब्रह्मलोक को प्राप्त हुआ, परन्तु अपनी भूख-प्यास पर विजय प्राप्त न कर सका। जब मैंने ब्रह्माजी से कहा तो वे बोले कि तुम मृत्युलोक में जाकर अपने ही शरीर का नित्य भोजन किया करो। यही तुम्हारा उपचार है क्योंकि तुमने किसी को कभी कोई दान नहीं दिया, केवल अपने ही शरीर का पोषण किया है। ब्रह्मलोक भी तुम्हें तुम्हारी तपस्या के कारण ही प्राप्त हुआ है। जब कभी महर्षि अगस्त्यत उस वन में पधारेंगे तभी तुम्हें भूख-प्यास से छुटकारा मिल जायेगा। अब आप मुझे मिल गये हैं, अतएव आप मेरा उद्धार करें और मेरा उद्धार करने के प्रतिदान स्वरूप यह दिव्य आभूषण ग्रहण करें। यह आभूषण दिव्य वस्त्र, स्वर्ण, धन आदि देने वाला है। इसके साथ मैं अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ आपको समर्पित कर रहा हूँ। मेरे आभूषण लेते ही राजर्षि श्‍वेत पूर्णतः तृप्‍त होकर स्वर्ग को प्राप्त हुये और वह शव भी लुप्त हो गया।"




राजा दण्ड की कथा

महर्षि अगस्त्य से श्‍वेत की कथा सुनकर श्रीरामचन्द्र ने पूछा, "मुनिराज! कृपया यह और बताइये कि जिस भयंकर वन में विदर्भराज श्‍वेत तपस्या करते थे, वह वन पशु-पक्षियों से रहित क्यों हो गया था?"

रघुनाथ जी की जिज्ञासा सुनकर महर्षि अगस्त्य ने बताया, "सतयुग की बात है, जब इस पृथ्वी पर मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य करते थे। राजा इक्ष्वाकु के सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उन पुत्रों में सबसे छोटा मूर्ख और उद्‍दण्ड था। इक्ष्वाकु समझ गये कि इस मंदबुद्धि पर कभी न कभी दण्डपात अवश्य होगा। इसलिये वे उसे दण्ड के नाम से पुकारने लगे। जब वह बड़ा हुआ तो पिता ने उसे विन्ध्य और शैवल पर्वत के बीच का राज्य दे दिया। दण्ड ने उस सथान का नाम मधुमन्त रखा और शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाया।

"एक दिन राजा दण्ड भ्रमण करता हुआ शुक्राचार्य के आश्रम की ओर जा निकला। वहाँ उसने शुक्राचार्य की अत्यन्त लावण्यमयी कन्या अरजा को देखा। वह कामपीड़ित होकर उसके साथ बलात्कार करने लगा। जब शुक्राचार्य ने अरजा की दुर्दशा देखी तो उन्होंने शाप दिया कि दण्ड सात दिन के अन्दर अपने पुत्र, सेना आदि सहित नष्ट हो जाय। इन्द्र ऐसी भयंकर धूल की वर्षा करेंगे जिससे उसका सम्पूर्ण राज्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक नष्ट हो जायेंगे। फिर अपनी कन्या से उन्होंने कहा कि तू इसी आश्रम में इस सरोवर के निकट रहकर ईश्‍वर की आराधना और अपने पाप का प्रायश्‍चित कर। जो जीव इस अवधि में तेरे पास रहेंगे वे धूल की वर्षा से नष्ट नहीं होंगे। शुक्राचार्य के शाप के कारण दण्ड, उसका राज्य और पशु-पक्षी आदि सब नष्ट हो गये। तभी से यह भूभाग दण्डकारण्य कहलाता है।"

यह वृतान्त सुनकर श्रीराम विश्राम करने चले गये। दूसरे दिन प्रातःकाल वे वहाँ से विदा हो गये।




वृत्रासुर की कथा

एक दिन श्रीरामचन्द्रजी ने भरत और लक्ष्मण को अपने पास बुलाकर कहा, "हे भाइयों! मेरी इच्छा राजसूय यज्ञ करने की है क्योंकि वह राजधर्म की चरमसीमा है। इस यज्ञ से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अक्षय और अविनाशी फल की प्राप्ति होती है। अतः तुम दोनों विचारकर कहो कि इस लोक और परलोक के कल्याण के लिये क्या यह यज्ञ उत्तम रहेगा?"

बड़े भाई के ये वचन सुनकर धर्मात्मा भरत बोले, "महाराज! इस पृथ्वी पर सर्वोत्तम धर्म, यश और स्वयं यह पृथ्वी आप ही में प्रतिष्ठित है। आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी और इस पर रहने वाले समस्त राजा भी आपको पितृतुल्य मानते हैं। अतः आप ऐसा यज्ञ किस प्रकार कर सकते हैं जिससे इस पृथ्वी के सब राजवंशों और वीरों का हमारे द्वारा संहार होने की आशंका हो?"

भरत के युक्‍तियुक्‍त वचन सुनकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुये और बोले, "भरत! तुम्हारा सत्यपरामर्श धर्मसंगत और पृथ्वी की रक्षा करने वाला है। तुम्हारा यह उत्तम कथन स्वीकार कर मैं राजसूय यज्ञ करने की इच्छा त्याग देता हूँ।"

तत्पश्‍चात लक्ष्मण बोले, "हे रघुनन्दन! सब पापों को नष्ट करने वाला तो अश्‍वमेघ यज्ञ भी है। यदि आप यज्ञ करना ही चाहते हैं तो इस यज्ञ को कीजिये। महात्मा इन्द्र के विषय में यह प्राचीन वृतान्त सुनने में आता है कि जब इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी, तब वे अश्‍वमेघ यज्ञ करके ही पवित्र हुये थे।"

श्री राम द्वारा पूरी कथा पूछने पर लक्ष्मण बोले, "प्राचीनकाल में वृत्रासुर नामक असुर पृथ्वी पर पूर्ण धार्मिक निष्ठा से राज्य करता था। एक बार वह अपने ज्येष्ठ पुत्र मधुरेश्‍वर को राज्य भार सौंपकर कठोर तपस्या करने वन में चला गया। उसकी तपस्या से इन्द्र का भी आसन हिल गया। वह भगवान विष्णु के पास जाकर बोले कि प्रभो! तपस्या के बल से वृत्रासुर ने इतनी अधिक शक्‍ति संचित कर ली है कि मैं अब उस पर शासन नहीं कर सकता। यदि उसने तपस्या के फलस्वरूप कुछ शक्ति और बढ़ा ली तो हम सब देवताओं को सदा उसके आधीन रहना पड़ेगा। इसलिये प्रभो! आप कृपा करके सम्पूर्ण लोकों को उसके आधिपत्य से बचाइये। किसी भी प्रकार उसका वध कीजिये।

"देवराज इन्द्र की यह प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु बोले कि यह तो तुम जानते हो देवराज! मझे वृत्रासुर से स्नेह है। इसलिये मैं उसका वध नहीं कर सकता परन्तु तुम्हारी प्रार्थना भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये मैं अपने तेज को तीन भागों में इस प्रकार विभाजित कर दूँगा जिससे तुम स्वयं वृत्रासुर का वध कर सको। मेरे तेज का एक भाग तुम्हारे अन्दर प्रवेश करेगा, दूसरा तुम्हारे वज्र में और तीसरा पृथ्वी में ताकि वह वृत्रासुर के धराशायी होने पर उसका भार सहन कर सके। भगवान से यह वरदान पाकर इन्द्र देवताओं सहित उस वन में गये जहाँ वृत्र तपस्या कर रहा था। अवसर पाकर इन्द्र ने अपने शक्‍तिशाली वज्र वृत्रासुर के मस्तक पर दे मारा। इससे वृत्र का सिर कटकर अलग जा पड़ा। सिर कटते ही इन्द्र सोचने लगे, मैंने एक निरपराध व्यक्‍ति की हत्या करके भारी पाप किया है। यह सोचकर वे किसी अन्धकारमय स्थान में जाकर प्रायश्‍चित करने लगे। इन्द्र के लोप हो जाने पर देवताओं ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की कि हे दीनबन्धु! वृत्रासुर मारा तो आपके तेज से गया है, परन्तु ब्रह्महत्या का पाप इन्द्र को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये आप उनके उद्धार का कोई उपाय बताइये। यह सुनकर विषणु बोले कि यदि इन्द्र अश्‍वमेघ यज्ञ करके मुझ यज्ञपुरुष की आराधना करेंगे तो वे निष्पाप होकर देवेन्द्र पद को प्राप्त कर लेंगे। इन्द्र ने ऐसा ही किया और अश्‍वमेघ यज्ञ के प्रताप से उन्होंने ब्रह्महत्या से मुक्‍ति प्राप्त की।"




राजा इल की कथा

जब लक्ष्मण ने अश्‍वमेघ यज्ञ के विशेष आग्रह किया तो श्री रामचन्द्र जी अत्यन्त प्रसन्न हुये और बोले, "हे सौम्य! इस विषय में मैं तुम्हें राजा इल की कथा सुनाता हूँ। प्रजापति कर्दम के पुत्र इल वाह्लीक देश के राजा थे। एक समय शिकार खेलते हुये वे उस स्थान पर जा पहुँचे जहाँ स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ था और भगवान शंकर अपने सेवकों के साथ पार्वती का मनोरंजन करते थे। उस प्रदेश में शिव की माया से सभी प्राणी स्त्री वर्ग के हो गये थे। नर पशु-पक्षी या मनुष्य कोई भी दृष्टिगत नहीं होता था। राजा इल ने भी सैनिकों सहित स्वयं को वहाँ स्त्री रूप में परिणित होते देखा। इससे भयभीत होकर वे शंकर जी के शरणागत हुये और उनसे पुरुषत्व प्रदान करने की प्रार्थना करने लगे।

"जब भगवान शंकर ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की तो उन्होंने व्याकुल होकर, गिड़गिड़ा कर उमा से प्रार्थना की। इससे प्रसन्न होकर उमा ने कहा कि मैं भगवान शंकर की केवल अर्द्धांगिनी हूँ। इलिये मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन के केवल आधे काल के लिये पुरुष बना सकती हूँ। बोलो, तुम अपनी आयु के पूर्वार्द्ध के लिये पुरुषत्व चाहते हो या उत्तरार्द्ध के लिये? इल कुछ क्षण सोचकर बोले कि देवि! ऐसा कर दीजिये कि मैं एक मास पुरुष और एक मास स्त्री रहा करूँ। पार्वती जी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी इच्छा पूरी कर दी। इस वरदान के फलस्वरूप इल प्रथम मास में त्रिभुवन सुन्दरी नारी बन गये तथा इल से इला कहलाने लगे। इल उक्‍त क्षेत्र से निकलकर उस सरोवर पर पहुँचे जहाँ सोमपुत्र बुध तपस्या कर रहे थे। इला पर द‍ृष्टि पड़ते ही बुध उस पर आसक्‍त हो गये एवं उसके साथ रमण करने लगे। उन्होंने राजा के साथ आये स्त्रीरूपी सैनिकों का वृतान्त जानकर उन्हें किंपुरुषी (किन्नरी) होकर पर्वत के किनारे रहने का निर्देश दिया। उन्होंने आग्रह करके इल को एक वर्ष के लिये वहीं रोक लिया।

"एक मास पश्‍चात् इला ने इल के रूप में पुरुषत्व प्राप्त किया। अगले मास वे फिर नारी बन गये। इसी प्रकार यह क्रम चलता रहा और नवें मास में इला ने पुरुरवा को जन्म दिया। अन्त में इल को इस रूप परिवर्तन से मुक्‍ति दिलाने के लिये बुध ने महात्माओं से विचार विमर्श करके शिव जी को विशेष प्रिय लगने वाला अश्‍वमेघ यज्ञ कराया। इससे प्रसन्न होकर शिव जी ने राजा इल को स्थाई रूप से पौरुष प्रदान किया।"

श्री रामचन्द्र जी बोले, "हे महाबाहु! वास्तव में अश्‍वमेघ यज्ञ अमित प्रभाव वाला है।"




अश्‍वमेध यज्ञ का अनुष्ठान

सब भाइयों के आग्रह को मानकर रामचन्द्र जी ने वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप आदि ऋषियों को बुलाकर परामर्श किया। उनकी स्वीकृति मिल जाने पर वानरराज सुग्रीव को सन्देश भेजा गया कि वे विशाल वानर सेना के साथ यज्ञोत्सव में भाग लेने के लिये आवें। फिर विभीषण सहित अन्य राज-महाराजाओं को भी इसी प्रकार के सन्देश और निमन्त्रण भेजे गये। संसार भर के ऋषि-महर्षियों को भी सपरिवार आमन्त्रित किया गया। कुशल कलाकारों द्वारा नैमिषारण्य में गोमती तट पर विशाल एवं कलापूर्ण यज्ञ मण्डप बनाने की व्यवस्था की गई। विशाल हवन सामग्री के साथ आगन्तुकों के भोजन, निवास आदि के लिये बहुत बड़े पैमाने पर प्रबन्ध किया गया। नैमिषारण्य में दूर-दूर तक बड़े-बड़े बाजार लगवाये गये। सीता की सुवर्णमय प्रतिमा बनवाई गई। लक्ष्मण को एक विशाल सेना और शुभ लक्षणों से सम्पन्न कृष्ण वर्ण अश्‍व के साथ विश्‍व भ्रमण के लिये भेजा गया।

देश-देश के राजाओं ने श्रीराम को अद्‍भुत उपहार भेंट करके अपने पूर्ण सहयोग का आश्‍वासन दिया। आगत याचकों को मनचाही वस्तुएँ संकेतमात्र से ही दी जा रही थीं। उस यज्ञ को देखकर ऋषि-मुनियों का कहना था कि ऐसा यज्ञ पहले कभी नहीं हुआ। यह यज्ञ एक वर्ष से भी अधिक समय तक चलता रहा। इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये महर्षि वाल्मीकि भी अपने शिष्यों सहित पधारे। जब उनके निवास की समुचित व्यवस्था हो गई तो उन्होंने अपनरे दो शिष्यों लव और कुश को आज्ञा दी कि वे दोनों भाई नगर में सर्वत्र घूमकर रामायण काव्य का गान करें। उनसे यह भी कहा कि जब तुमसे कोई पूछे कि तुम किसके पुत्र हो तो तुम केवल इतना कहना कि हम ऋषि वाल्मीकि के शिष्य हैं। यह आदेश पाकर सीता के दोनों पुत्र रामायण का सस्वर गान करने के लिये चल पड़े।




लव-कुश द्वारा रामायण गान

जब लव-कुश अपने रामायण गान से पुरवासियों एवं आगन्तुकों का मन मोहने लगे तब एक दिन श्रीराम ने उन दोनों बालकों को अपनी राजसभा में बुलाया। उस समय राजसभा में श्रेष्ठ नैयायिक, दर्शन एवं कल्पसूत्र के विद्वान, संगीत तथा छन्द कला मर्मज्ञ, विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाता, ब्रह्मवेत्ता आदि मनीषि विद्यमान थे। लव-कुश को देखकर सबको ऐसा प्रतीत होता था मानो दोनों श्रीराम के ही प्रतिरूप हैं। यदि इनके सिर पर जटाजूट और शरीर पर वल्कल न होते तो इनमें और श्रीराम में कोई अन्तर दिखाई न देता। दोनों भाइयों ने अपराह्न तक प्रारम्भिक बीस सर्गों का गान किया और उस दिन का कार्यक्रम समाप्त किया। पाठ समाप्त होने पर श्रीराम ने भरत को आदेश दिया कि दोनों भाइयों को अट्ठारह हजार स्वर्ण मुद्राएँ दी जायें, किन्तु लव-कुश ने उसे लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि हम वनवासी हैं, हमें धन की क्या आवश्यकता है? इससे श्रीराम सहित सब श्रोताओं को भारी आश्‍चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, "यह काव्य किसने लिखा है और इसमें कितने श्‍लोक हैं?"

यह सुनकर उन मुनिकुमारों ने बताया, "महर्षि वाल्मीकि ने इस महाकाव्य की रचना की है। इसमें चौबीस हजार श्‍लोक और एक सौ उपाख्यान हैं। इसमें कुल पाँच सर्ग और छः काण्ड हैं। इसके अतिरिक्‍त उत्तरकाण्ड इसका सातवाँ काण्ड है। आपका चरित्र ही इस महाकाव्य का विषय है।"

यह सुनकर रघुनाथ जी ने यज्ञ समाप्त होने के पश्‍चात् सम्पूर्ण महाकाव्य सुनने की इच्छा प्रकट की। इस काव्य-कथा को सुनकर उन्हें पता चला कि कुश और लव सीता के ही सुपुत्र हैं।




भरत व लक्ष्मण के पुत्रों के लिये राज्य व्यवस्था

यज्ञ की समाप्ति पर सुग्रीव, विभीषण आदि सहित राजाओं तथा ऋषि-मुनियों एवं निमन्त्रित जनों को अयोध्यापति राम ने सब प्रकार से सन्तुष्ट कर विदा किया। इसके पश्‍चात् उन्होंने राजकाज में मन लगाया। प्रजा का पालन करते हुये उन्होंने असंख्य यज्ञ एवं धार्मिक अनुष्ठान किये। उनके राज्य की महिमा दूर-दूर तक फैल रही थी। प्रजा सब प्रकार से सुखी और सम्पन्न थी पुत्रों एवं पौत्रों की समृद्धि एवं श्रद्धा से घिरी हुई माता कौसल्या ने इस संसार का त्याग किया। उनकी मृत्यु के पश्‍चात् कैकेयी, सुमित्रा भी परलोकगामिनी हो गईं।

भरत के पुत्र तक्ष और पुष्कल जब बड़े हुये तो कैकेयनरेश तथा भरत के मामा युधाजित ने श्रीराम के पास सन्देश भेजा कि सिन्धु नदी के दोनों तटों पर गन्धर्व देश बसा हुआ है। उस प्रदेश में गन्धर्वराज शैलूष अपने तीन करोड़ महापराक्रमी गन्धर्वों के साथ राज्य करते हैं। यदि आप उस प्रदेश को जीत कर सिन्धु देश के दोनों ओर के प्रान्तों को तक्ष और पुष्कल को सौंप दें तो अति उत्तम हो। कैकेय नरेश की आज्ञा को शिरोधार्य कर श्रीराम ने भरत को गन्धर्व देश पर आक्रमण का आदेश दिया। कैकेय नरेश युधाजित भी अपनी सेना लेकर भरत के साथ आ मिले।

दोनों सेनाओं ने मिलकर गन्धर्वों की राजधानी पर धावा बोल दिया। दोनों ओर की सेनाएँ भयंकर गर्जन-तर्जन करती हुई परस्पर युद्ध करने लगी। देखते-देखते समर भूमि में रक्‍त की नदियाँ बह गईं। सैनिकों के रुण्ड-मुण्ड उस शोणित-सरिता में जल-जन्तुओं की भाँति बहते दिखाई देने लगे। सात दिन तक यह भयानक युद्ध चलता रहा। अन्तिम दिन वीर भरत ने संवर्त नामक अस्त्र का प्रयोग करके गन्धर्व सेना का सर्वनाश कर दिया। इस प्रकार गन्धर्वों को परास्त कर भरत ने दो सुन्दर नगरों की स्थापना की। एक का नाम तक्षशिला रखा और तक्ष को वहाँ का राजा बनाया। दूसरे का नाम पुष्कलावत रखकर उस पुष्कल को सौंप दिया। नये अधिपतियों के शासन में दोनों नगरों ने अभूतपूर्व उन्नति की। पाँच वर्ष पश्‍चात् भरत अयोध्या लौट आये।

इसके पश्‍चात् श्रीरामचन्द्र ने भरत के परामर्श से लक्ष्मण के पुत्र अंगद के लिये कारूमथ में और चन्द्रकान्त के लिये चन्द्रकान्त नगर का निर्माण किया और उन्हें वहाँ का राजा बनाया। राजाकाज की समुचित व्यवस्था करने के लिये उन्होंने अंगद के साथ लक्ष्मण को और चन्द्रकान्त के साथ भरत को भेजा जो एक वर्ष तक वहाँ का समुचित प्रबन्ध करके अयोध्या लौट आये।




सीता का रसातल प्रवेश

सीता के त्याग और तपस्या का वृतान्त सुनकर रामचन्द्रजी ने अपने विशिष्ट दूत के द्वारा महर्षि वाल्मीकि के पास सन्देश भिजवाया, "यदि सीता का चरित्र शुद्ध है और वे आपकी अनुमति ले यहाँ आकर जन समुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें और मेरा कलंक दूर करने के लिये शपथ करें तो मैं उनका स्वागत करूँगा।"

यह सन्देश सुनकर वाल्मीकि ने कहलवाया, "ऐसा ही होगा। सीता वही करेंगीं जो श्रीराम चाहेंगे क्योंकि पति स्त्री के लिये परमात्मा होता है।"

यह उत्तर पाकर सीता शपथ के अवसर पर राजा राम ने सब ऋषि-मुनियों, नगरवासियों आदि को उस समय सभागार में उपस्थित रहने के लिये निमन्त्रित किया।

दूसरे दिन सीता जी का शपथ ग्रहण देखने के लिये नाना देशों से पधारे ऋषि-मुनि, विद्वान, नागरिक सहस्त्रों की संख्या में उस सभा भवन में आकर उपस्थित हो गये। निश्‍चित समय पर वाल्मीकि सीता को लेकर आये। आगे-आगे महर्षि वाल्मीकि थे और उनके पीछे दोनों हाथ जोड़े, नेत्रों में आँसू बहाती सीता आ रही थीं। वे मन ही मन श्रीराम का चिन्तन कर रही थीं। उस समय महर्षि के पीछे आती हुई सीता इस प्रकार जान पड़ती थीं मानो सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के पीछे श्रुति चली आ रही हो। काषायवस्त्रधारिणी सीता की दीन-हीन दशा देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुःख से भर आया और वे शोक से विकल हो आँसू बहाने लगे।

वाल्मीकि बोले, "श्रीराम! मैं तुम्हें विश्‍वास दिलाता हूँ कि सीता पवित्र और सती है। कुश और लव आपके ही पुत्र हैं। मैं कभी मिथ्याभाषण नहीं करता। यदि मेरा कथन मिथ्या हो तो मेरी सम्पूर्ण तपस्या निष्फल हो जाय। मेरी इस साक्षी के बाद सीता स्वयं शपथपूर्वक आपको अपनी निर्दोषिता का आश्‍वासन देंगीं।"

महर्षि के इन उत्तम वचनों को सुनकर और सभा के मध्य में जानकी को प्रांजलिभूत खड़ी देखकर रघुनन्दन बोले, "हे ऋषिश्रेष्ठ! आपका कथन सत्य है और आपके निर्दोष वचनों पर मुझे पूर्ण विश्‍वास है। वास्तव में वैदेही ने अपनी सच्चरित्रता का विश्‍वास मुझे अग्नि के समक्ष दिला दिया था परन्तु लोकापवाद के कारण ही मुझे इन्हें त्यागना पड़ा। आप मुझे इस अपराध के लिये क्षमा करें।"

तत्पश्‍चात् श्रीराम सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और उपस्थित जनसमूह को लक्ष्य करके बोले, "हे मुनि एवं विज्ञजनों! मुझे महर्षि वाल्मीकि जी के कथन पर पूर्ण विश्‍वास है परन्तु यदि सीता स्वयं सबके समक्ष अपनी शुद्धता का पूर्ण विश्‍वास दें तो मुझे प्रसन्नता होगी।"

राम का कथन समाप्त होते ही सीता हाथ जोड़कर, नेत्र झुकाये बोलीं, "मैंने अपने जीवन में यदि श्रीरघुनाथजी के अतिरिक्‍त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिन्तन न किया हो तो मेरी पवित्रता के प्रमाणस्वरूप भगवती पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें।"

सीता के इस प्रकार शपथ लेते ही पृथ्वी फटी। उसमें से एक सिंहासन निकला। उसी के साथ पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी भी दिव्य रूप में प्रकट हुईं। उन्होंने दोनों भुजाएँ बढ़ाकर स्वागतपूर्वक सीता को उठाया और प्रेम से सिंहासन पर बिठा लिया। देखते-देखते सीता सहित सिंहासन पृथ्वी में लुप्त हो गया। सारे दर्शक स्तब्ध से यह अभूतपूर्व द‍ृश्य देखते रहे। सम्पूर्ण वातावरण मोहाच्छन्न सा हो गया।

इस सम्पूर्ण घटना से राम को बहुत दुःख हुआ। उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। वे दुःखी होकर बोले, "मैं जानता हूँ, माँ वसुन्धरे! तुम ही सीता की सच्ची माता हो। राजा जनक ने हल जोतते हुये तुमसे ही सीता को पाया था, परन्तु तुम मेरी सीता को मुझे लौटा दो या मुझे भी अपनी गोद में समा लो।"

श्रीराम को इस प्रकार विलाप करते देख ब्रह्मादि देवताओं ने उन्हें नाना प्रकार से सान्त्वना देकर समझाया।




लक्ष्मण का परित्याग

जब इस प्रकार राज्य करते हुये श्रीरघुनाथजी को बहुत वर्ष व्यतीत हो गये तब एक दिन काल तपस्वी के वेश में राजद्वार पर आया। उसने सन्देश भिजवाया कि मैं महर्षि अतिबल का दूत हूँ और अत्यन्त आवश्यक कार्य से श्री रामचन्द्र जी से मिलना चाहता हूँ। सन्देश पाकर राजचन्द्रजी ने उसे तत्काल बुला भेजा। काल के उपस्थित होने पर श्रीराम ने उन्हें सत्कारपूर्वक यथोचित आसन दिया और महर्षि अतिबल का सन्देश सनाने का आग्रह किया। यह सुनकर मुनिवेषधारी काल ने कहा, "यह बात अत्यन्त गोपनीय है। यहाँ हम दोनों के अतिरिक्‍त कोई तीसरा व्यक्‍ति नहीं रहना चाहिये। मैं आपको इसी शर्त पर उनका सन्देश दे सकता हूँ कि यदि बातचीत के समय कोई व्यक्‍ति आ जाये तो आप उसका वध कर देंगे।"

श्रीराम ने काल की बात मानकर लक्ष्मण से कहा, "तुम इस समय द्वारपाल को विदा कर दो और स्वयं ड्यौढ़ी पर जाकर खड़े हो जाओ। ध्यान रहे, इन मुनि के जाने तक कोई यहाँ आने न पाये। जो भी आयेगा, मेरे द्वारा मारा जायेगा।"

जब लक्ष्मण वहाँ से चले गये तो उन्होंने काल से महर्षि का सन्देश सुनाने के लिये कहा। उनकी बात सुनकर काल बोला, "मैं आपकी माया द्वारा उत्पन्न आपका पुत्र काल हूँ। ब्रह्मा जी ने कहलाया है कि आपने लोकों की रक्षा करने के लिये जो प्रतिज्ञा की थी वह पूरी हो गई। अब आपके स्वर्ग लौटने का समय हो गया है। वैसे आप अब भी यहाँ रहना चाहें तो आपकी इच्छा है।"

यह सुनकर श्रीराम ने कहा, "जब मेरा कार्य पूरा हो गया तो फिर मैं यहाँ रहकर क्या करूँगा? मैं शीघ्र ही अपने लोक को लौटूँगा।"

जब काल रामचन्द्र जी से इस प्रकार वार्तालाप कर रहा था, उसी समय राजप्रासाद के द्वार पर महर्षि दुर्वासा रामचन्द्र से मिलने आये। वे लक्ष्मण से बोले, "मुझे तत्काल राघव से मिलना है। विलम्ब होने से मेरा काम बिगड़ जायेगा। इसलिये तुम उन्हें तत्काल मेरे आगमन की सूचना दो।"

लक्ष्मण बोले, "वे इस समय अत्यन्त व्यस्त हैं। आप मुझे आज्ञा दीजिये, जो भी कार्य हो मैं पूरा करूँगा। यदि उन्हीं से मिलना हो तो आपको दो घड़ी प्रतीक्षा करनी होगी।"

यह सुनते ही मुनि दुर्वासा का मुख क्रोध से तमतमा आया और बोले, "तुम अभी जाकर राघव को मेरे आगमन की सूचना दो। यदि तुम विलम्ब करोगे तो मैं शाप देकर समस्त रघुकुल और अयोध्या को अभी इसी क्षण भस्म कर दूँगा।"

ऋषि के क्रोधयुक्‍त वचन सुनकर लक्ष्मण सोचने लगे, चाहे मेरी मृत्यु हो जाये, रघुकुल का विनाश नहीं होना चाहिये। यह सोचकर उन्होंने रघुनाथजी के पास जाकर दुर्वासा के आगमन का समाचार जा सुनाया। रामचन्द्र जी काल को विदा कर महर्षि दुर्वासा के पास पहुँचे। उन्हें देखकर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "रघुनन्दन! मैंने दीर्घकाल तक उपवास करके आज इसी क्षण अपना व्रत खोलने का निश्‍चय किया है। इसलिये तुम्हारे यहाँ जो भी भोजन तैयार हो तत्काल मँगाओ और श्रद्धापूर्वक मुझे खिलाओ।"

रामचन्द्र जी ने उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट कर विदा किया। फिर वे काल कि दिये गये वचन को स्मरण कर भावी भ्रातृ वियोग की आशंका से अत्यन्त दुःखी हुये।

अग्रज को दुःखी देख लक्ष्मण बोले, "प्रभु! यह तो काल की गति है। आप दुःखी न हों और निश्‍चिन्त होकर मेरा वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें।"

लक्ष्मण की बात सुनकर वे और भी व्याकुल हो गये। उन्होंने गुरु वसिष्ठ तथा मन्त्रियों को बुलाकर उन्हें सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया। यह सुनकर वसिष्ठ जी बोले, "राघव! आप सबको शीघ्र ही यह संसार त्याग कर अपने-अपने लोकों को जाना है। इसका प्रारम्भ सीता के प्रस्थान से हो चुका है। इसलिये आप लक्ष्मण का परित्याग करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें। प्रतिज्ञा नष्ट होने से धर्म का लोप हो जाता है। साधु पुरुषों का त्याग करना उनके वध करने के समान ही होता है।"

गुरु वसिष्ठ की सम्मति मानकर श्री राम ने दुःखी मन से लक्ष्मण का परित्याग कर दिया। वहाँ से चलकर लक्ष्मण सरयू के तट पर आये। जल का आचमन कर हाथ जोड़, प्राणवायु को रोक, उन्होंने अपने प्राण विसर्जन कर दिये।।




महाप्रयाण

लक्ष्मण का त्याग करके अत्यन्त शोक विह्वल हो रघुनन्दन ने पुरोहित, मन्त्रियों और नगर के श्रेष्ठिजनों को बुलाकर कहा, "आज मैं अयोधया के सिंहासन पर भरत का अभिषेक कर स्वयं वन को जाना चाहता हूँ।"

यह सुनते ही सबके नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। भरत ने कहा, "मैं भी अयोध्या में नहीं रहूँगा, मैं आपके साथ चलूँगा। आप कुश और लव का अभिषेक कीजिये।"

प्रजाजन भी कहने लगे कि हम सब भी आपके साथ चलेंगे।

कुछ क्षण विचार करके उन्होंने दक्षिण कौशल का राज्य कुश को और उत्तर कौशल का राज्य लव को सौंपकर उनका अभिषेक किया। कुश के लिये विन्ध्याचल के किनारे कुशावती और लव के लिये श्रावस्ती नगरों का निर्माण कराया फिर उन्हें अपनी-अपनी राजधानियों को जाने का आदेश दिया। इसके पश्‍चात् एक द्रुतगामी दूत भेजकर मधुपुरी से शत्रघ्न को बुलाया। दूत ने शत्रुघ्न को लक्ष्मण के त्याग, लव-कुश के अभिषेक आदि की सारी बातें भी बताईं। इस घोर कुलक्षयकारी वृतान्त को सुनकर शत्रुघ्न अवाक् रह गये। तदन्तर उन्होंने अपने दोनों पुत्रों सुबाहु और शत्रुघाती को अपना राज्य बाँट दिया। उन्होंने सबाहु को मधुरा का और शत्रुघाती को विदिशा का राज्य सौंप तत्काल अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। अयोध्या पहुँचकर वे बड़े भाई से बोले, "मैं भी आपके साथ चलने के लिये तैयार होकर आ गया हूँ। कृपया आप ऐसी कोई बात न कहें जो मेरे निश्‍चय में बाधक हो।"

इसी बीच सुग्रीव भी आ गये और उन्होंने बताया कि मैं अंगद का राज्यभिषक करके आपके साथ चलने के लिये आया हूँ। उनकी बात सुनकर रामचन्द्रजी मुस्कुराये और बोले, "बहुत अच्छा।"

फिर विभीषण से बोले, "विभीषण! मैं चाहता हूँ कि तुम इस संसार में रहकर लंका में राज्य करो। यह मेरी हार्दिक इच्छा है। आशा है, तुम इसे अस्वीकार नहीं करोगे।"

विभीषण ने भारी मन से रामचन्द्र जी का आदेश स्वीकार कर लिया। श्रीराम ने हनुमान को भी सदैव पृथ्वी पर रहने की आज्ञा दी। जाम्बवन्त, मैन्द और द्विविद को द्वापर तथा कलियुग की सन्धि तक जीवित रहने का आदेश दिया।

अगले दिन प्रातःकाल होने पर धर्मप्रतिज्ञ श्री रामचन्द्र जी ने गुरु वसिष्ठ जी की आज्ञा से महाप्रस्थानोचित सविधि सब धर्मकृत्य किये। तत्पश्‍चात् पीताम्बर धारण कर हाथ में कुशा लिये राम ने वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ सरयू नदी की ओर प्रस्थान किया। नंगे पैर चलते हुये वे सूर्य के समान प्रकाशमान मालूम पड़ रहे थे। उस समय उनके दक्षिण भाग में साक्षात् लक्ष्मी, वाम भाग में भूदेवी और उनके समक्ष संहार शक्‍ति चल रही थी। उनके साथ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और समस्त ब्राह्मण मण्डली थी। वे सब स्वर्ग का द्वार खुला देख उनके साथ चले जाते थे। उनके साथ उनके राजमहल के सभी आबालवृद्ध स्त्री-पुरुष भी चल रहे थे। भरत व शत्रुघ्न भी अपने-अपने रनवासों के साथ श्रीराम के संग-संग चल रहे थे। सब मन्त्री तथा सेवकगण अपने परिवारों सहित उनके पीछे हो लिये। उन सबके पीछे मानो सारी अयोध्या ही चल रही थी। मस्त ऋक्ष ‌और वानर भी किलकारियाँ मारते, उछलते-कूदते, दौड़ते हुये चले। इस समस्त समुदाय में कोई भी दुःखी अथवा उदास नहीं था, बल्कि सभी इस प्रकार प्रफुल्लित थे जैसे छोटे बच्चे मनचाहा खिलौना पाने पर प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार चलते हुये वे सरयू नदी के पास पहुँचे।

उसी समय सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी सब देवताओं और ऋषियों के साथ वहाँ आ पहुँचे। श्रीराम को स्वर्ग ले जाने के लिये करोड़ों विमान भी वहाँ उपस्थित हुये। उस समय समस्त आकाशमण्डल दिव्य तेज से दमकने लगा। शीतल-मंद-सुगन्धित वायु बहने लगी, आकाश में गन्धर्व दुन्दुभियाँ बजाने लगे, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और देवतागण फूल बरसाने लगे। श्रीरामचन्द्रजी ने सभी भाइयों और साथ में आये जनसमुदाय के साथ पैदल ही सरयू नदी में प्रवेश किया। तब आकाश से ब्रह्माजी बोले, "हे राघव! हे विष्णु! आपका मंगल हो। हे विष्णुरूप रघुनन्दन! आप अपने भाइयों के साथ अपने स्वरुपभूत लोक में प्रवेश करें। चाहें आप चतुर्भुज विष्णु रूप धारण करें और चाहें सनातन आकाशमय अव्यक्‍त ब्रह्मरूप में रहें।"

पितामह ब्रह्मा जी की स्तुति सुनकर श्रीराम वैष्णवी तेज में प्रविष्ट हो विष्णुमय हो गये। सब देवता, ऋषि-मुनि, मरुदगण, इन्द्र और अग्नदेव उनकी पूजा करने लगे। नाग, यक्ष, किन्नर, अप्सराएँ तथा राक्षस आदि प्रसन्न हो उनकी स्तुति करने लगे। तभी विष्णुरूप श्रीराम ब्रह्माजी से बोले, "हे सुव्रत! ये जितने भी जीव स्नेहवश मेरे साथ चले आये हैं, ये सब मेरे भक्‍त हैं, इस सबको स्वर्ग में रहने के लिये उत्तम स्थान दीजिये। ब्रह्मा जी ने उन सबको ब्रह्मलोक के समीप स्थित संतानक नामक लोक में भेज दिया। वानर और ऋक्ष आदि जिन-जिन देवताओं के अंश से उत्पन्न हुये थे, वे सब उन्हीं में लीन हो गये। सुग्रीव ने सूर्यमण्डल में प्रवेश किया। उस समय जिसने भी सरयू में डुबकी लगाई वहीं शरीर त्यागकर परमधाम का अधिकारी हो गया।




रामायण की महिमा

लव और कुश ने कहा, "महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण महाकाव्य यहाँ समाप्त होता है। यह महाकाव्य आयु तथा सौभाग्य को बढ़ाता है और पापों का नाश करता है। इसका नियमित पाठ करने से मनुष्य की सभी कामनाएँ पूरी होती हैं और अन्त में परमधाम की प्राप्ति होती है। सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में एक भार स्वर्ण का दान करने से जो फल मिलता है, वही फल प्रतिदिन रामायण का पाठ करने या सुनने से होता है। यह रामायण काव्य गायत्री का स्वरूप है। यह चरित्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देने वाला है। इस प्रकार इस पुरान महाकाव्य का आप श्रद्धा और विश्‍वास के साथ नियमपूर्वक पाठ करें। आपका कल्याण होगा।

॥वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड समाप्त॥



श्री राम चरित मानस :- उत्तरकाण्ड

श्री राम चरित मानस :- उत्तरकाण्ड 

|| श्री गणेशाय नमः ||
|| श्रीजानकीवल्लभो विजयते ||
श्रीरामचरितमानस सप्तम सोपान - उत्तरकाण्ड



श्लोक
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम,
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम ||१ ||
कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ,
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ ||२ ||
कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम,
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम ||३ ||

दोहा 
रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग,
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग ||

चौपाई 
सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर,
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर ||
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ,
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ ||
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार,
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार ||
रहेउ एक दिन अवधि अधारा, समुझत मन दुख भयउ अपारा ||
कारन कवन नाथ नहिं आयउ, जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ||
अहह धन्य लछिमन बड़भागी, राम पदारबिंदु अनुरागी ||
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा, ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ||
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी, नहिं निस्तार कलप सत कोरी ||
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ, दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ ||
मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई, मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई ||
बीतें अवधि रहहि जौं प्राना, अधम कवन जग मोहि समाना ||

दोहा 
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत,
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत ||१(क) ||
बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात,
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ||१(ख) ||

चौपाई 
देखत हनूमान अति हरषेउ, पुलक गात लोचन जल बरषेउ ||
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी, बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी ||
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती, रटहु निरंतर गुन गन पाँती ||
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता, आयउ कुसल देव मुनि त्राता ||
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत, सीता सहित अनुज प्रभु आवत ||
सुनत बचन बिसरे सब दूखा, तृषावंत जिमि पाइ पियूषा ||
को तुम्ह तात कहाँ ते आए, मोहि परम प्रिय बचन सुनाए ||
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना, नामु मोर सुनु कृपानिधाना ||
दीनबंधु रघुपति कर किंकर, सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर ||
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता, नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता ||
कपि तव दरस सकल दुख बीते, मिले आजु मोहि राम पिरीते ||
बार बार बूझी कुसलाता, तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता ||
एहि संदेस सरिस जग माहीं, करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं ||
नाहिन तात उरिन मैं तोही, अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ||
तब हनुमंत नाइ पद माथा, कहे सकल रघुपति गुन गाथा ||
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं, सुमिरहिं मोहि दास की नाईं ||

छंद  
निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर यो,
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर यो ||
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो,
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो ||

दोहा 
राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात,
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात || २(क) ||

सोरठा 
भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं,
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि ||२(ख) ||

चौपाई 
हरषि भरत कोसलपुर आए, समाचार सब गुरहि सुनाए ||
पुनि मंदिर महँ बात जनाई, आवत नगर कुसल रघुराई ||
सुनत सकल जननीं उठि धाईं, कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई ||
समाचार पुरबासिन्ह पाए, नर अरु नारि हरषि सब धाए ||
दधि दुर्बा रोचन फल फूला, नव तुलसी दल मंगल मूला ||
भरि भरि हेम थार भामिनी, गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी ||
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं, बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं ||
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई, तुम्ह देखे दयाल रघुराई ||
अवधपुरी प्रभु आवत जानी, भई सकल सोभा कै खानी ||
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा, भइ सरजू अति निर्मल नीरा ||

दोहा 
हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत,
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत ||३(क) ||
बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान,
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान ||३(ख) ||
राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान,
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान ||३(ग) ||

चौपाई 
इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर, कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ||
सुनु कपीस अंगद लंकेसा, पावन पुरी रुचिर यह देसा ||
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना, बेद पुरान बिदित जगु जाना ||
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ||
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि, उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ||
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा, मम समीप नर पावहिं बासा ||
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी, मम धामदा पुरी सुख रासी ||
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी, धन्य अवध जो राम बखानी ||

दोहा 
आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान,
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान ||४(क) ||
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु,
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु ||४(ख) ||

चौपाई 
आए भरत संग सब लोगा, कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा ||
बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक, देखे प्रभु महि धरि धनु सायक ||
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह, अनुज सहित अति पुलक तनोरुह ||
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया, हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया ||
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा, धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा ||
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज, नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज ||
परे भूमि नहिं उठत उठाए, बर करि कृपासिंधु उर लाए ||
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े, नव राजीव नयन जल बाढ़े ||

छंद  
राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी,
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ||
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही,
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही ||१ ||
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई,
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई ||
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो,
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ||२ ||

दोहा 
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ,
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ||५ ||

चौपाई 
भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे, दुसह बिरह संभव दुख मेटे ||
सीता चरन भरत सिरु नावा, अनुज समेत परम सुख पावा ||
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी, जनित बियोग बिपति सब नासी ||
प्रेमातुर सब लोग निहारी, कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी ||
अमित रूप प्रगटे तेहि काला, जथाजोग मिले सबहि कृपाला ||
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी, किए सकल नर नारि बिसोकी ||
छन महिं सबहि मिले भगवाना, उमा मरम यह काहुँ न जाना ||
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा, आगें चले सील गुन धामा ||
कौसल्यादि मातु सब धाई, निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई ||

छंद  
जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं,
दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई ||
अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे,
गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे ||

दोहा 
भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि,
रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि ||६(क) ||
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ,
कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ ||६ ||

चौपाई 
सासुन्ह सबनि मिली बैदेही, चरनन्हि लागि हरषु अति तेही ||
देहिं असीस बूझि कुसलाता, होइ अचल तुम्हार अहिवाता ||
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं, मंगल जानि नयन जल रोकहिं ||
कनक थार आरति उतारहिं, बार बार प्रभु गात निहारहिं ||
नाना भाँति निछावरि करहीं, परमानंद हरष उर भरहीं ||
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि, चितवति कृपासिंधु रनधीरहि ||
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा, कवन भाँति लंकापति मारा ||
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे, निसिचर सुभट महाबल भारे ||

दोहा 
लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु,
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु ||७ ||

चौपाई 
लंकापति कपीस नल नीला, जामवंत अंगद सुभसीला ||
हनुमदादि सब बानर बीरा, धरे मनोहर मनुज सरीरा ||
भरत सनेह सील ब्रत नेमा, सादर सब बरनहिं अति प्रेमा ||
देखि नगरबासिन्ह कै रीती, सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती ||
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए, मुनि पद लागहु सकल सिखाए ||
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे, इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ||
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे, भए समर सागर कहँ बेरे ||
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे, भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे ||
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए, निमिष निमिष उपजत सुख नए ||

दोहा 
कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ ||
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ||८(क) ||
सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद,
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद ||८(ख) ||

चौपाई 
कंचन कलस बिचित्र सँवारे, सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे ||
बंदनवार पताका केतू, सबन्हि बनाए मंगल हेतू ||
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई, गजमनि रचि बहु चौक पुराई ||
नाना भाँति सुमंगल साजे, हरषि नगर निसान बहु बाजे ||
जहँ तहँ नारि निछावर करहीं, देहिं असीस हरष उर भरहीं ||
कंचन थार आरती नाना, जुबती सजें करहिं सुभ गाना ||
करहिं आरती आरतिहर कें, रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें ||
पुर सोभा संपति कल्याना, निगम सेष सारदा बखाना ||
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं, उमा तासु गुन नर किमि कहहीं ||

दोहा 
नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस,
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस ||९(क) ||
होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान,
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान ||९(ख) ||

चौपाई 
प्रभु जानी कैकेई लजानी, प्रथम तासु गृह गए भवानी ||
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा, पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा ||
कृपासिंधु जब मंदिर गए, पुर नर नारि सुखी सब भए ||
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई, आजु सुघरी सुदिन समुदाई ||
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन, रामचंद्र बैठहिं सिंघासन ||
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए, सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए ||
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका, जग अभिराम राम अभिषेका ||
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे, महाराज कहँ तिलक करीजै ||

दोहा 
तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ,
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ ||१०(क) ||
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ,
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ ||१०(ख) ||

।। नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम ।।

चौपाई 
अवधपुरी अति रुचिर बनाई, देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ||
राम कहा सेवकन्ह बुलाई, प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ||
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए, सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ||
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे, निज कर राम जटा निरुआरे ||
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई, भगत बछल कृपाल रघुराई ||
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई, सेष कोटि सत सकहिं न गाई ||
पुनि निज जटा राम बिबराए, गुर अनुसासन मागि नहाए ||
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे, अंग अनंग देखि सत लाजे ||

दोहा 
सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ,
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ||११(क) ||
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि,
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ||११(ख) ||
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद,
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ||११(ग) ||

चौपाई 
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा, तुरत दिब्य सिंघासन मागा ||
रबि सम तेज सो बरनि न जाई, बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ||
जनकसुता समेत रघुराई, पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ||
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे, नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ||
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा, पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ||
सुत बिलोकि हरषीं महतारी, बार बार आरती उतारी ||
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे, जाचक सकल अजाचक कीन्हे ||
सिंघासन पर त्रिभुअन साई, देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ||

छंद  
नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं,
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ||
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते,
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ||१ ||
श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई,
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ||
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे,
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ||२ ||

दोहा 
वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस,
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ||१२(क) ||
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम,
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ||१२(ख) ||
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान,
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ||१२(ग) ||

छंद  
जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने,
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ||
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे,
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ||१ ||
तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे,
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ||
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे,
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ||२ ||
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी,
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ||
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे,
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ||३ ||
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी,
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ||
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे,
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ||४ ||
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने,
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ||
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे,
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ||५ ||
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं,
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ||
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं,
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ||६ ||

दोहा 
सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार,
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ||१३(क) ||
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर,
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ||१३(ख) ||

छंद  
जय राम रमारमनं समनं, भव ताप भयाकुल पाहि जनं ||
अवधेस सुरेस रमेस बिभो, सरनागत मागत पाहि प्रभो ||१ ||
दससीस बिनासन बीस भुजा, कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ||
रजनीचर बृंद पतंग रहे, सर पावक तेज प्रचंड दहे ||२ ||
महि मंडल मंडन चारुतरं, धृत सायक चाप निषंग बरं ||
मद मोह महा ममता रजनी, तम पुंज दिवाकर तेज अनी ||३ ||
मनजात किरात निपात किए, मृग लोग कुभोग सरेन हिए ||
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे, बिषया बन पावँर भूलि परे ||४ ||
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए, भवदंघ्रि निरादर के फल ए ||
भव सिंधु अगाध परे नर ते, पद पंकज प्रेम न जे करते ||५ ||
अति दीन मलीन दुखी नितहीं, जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ||
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के, प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ||६ ||
नहिं राग न लोभ न मान मदा, तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ||
एहि ते तव सेवक होत मुदा, मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||७ ||
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ, पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ||
सम मानि निरादर आदरही, सब संत सुखी बिचरंति मही ||८ ||
मुनि मानस पंकज भृंग भजे, रघुबीर महा रनधीर अजे ||
तव नाम जपामि नमामि हरी, भव रोग महागद मान अरी ||९ ||
गुन सील कृपा परमायतनं, प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ||
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं, महिपाल बिलोकय दीन जनं ||१० ||

दोहा 
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग,
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ||१४(क) ||
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास,
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ||१४(ख) ||

चौपाई 
सुनु खगपति यह कथा पावनी, त्रिबिध ताप भव भय दावनी ||
महाराज कर सुभ अभिषेका, सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ||
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं, सुख संपति नाना बिधि पावहिं ||
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं, अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ||
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई, लहहिं भगति गति संपति नई ||
खगपति राम कथा मैं बरनी, स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ||
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी, मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ||
नित नव मंगल कौसलपुरी, हरषित रहहिं लोग सब कुरी ||
नित नइ प्रीति राम पद पंकज, सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ||
मंगन बहु प्रकार पहिराए, द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ||

दोहा 
ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति,
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ||१५ ||

चौपाई 
बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं, जिमि परद्रोह संत मन माही ||
तब रघुपति सब सखा बोलाए, आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ||
परम प्रीति समीप बैठारे, भगत सुखद मृदु बचन उचारे ||
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई, मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई ||
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे, मम हित लागि भवन सुख त्यागे ||
अनुज राज संपति बैदेही, देह गेह परिवार सनेही ||
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना, मृषा न कहउँ मोर यह बाना ||
सब के प्रिय सेवक यह नीती, मोरें अधिक दास पर प्रीती ||

दोहा 
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम,
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ||१६ ||

चौपाई 
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए, को हम कहाँ बिसरि तन गए ||
एकटक रहे जोरि कर आगे, सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ||
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा, कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ||
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं, पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं ||
तब प्रभु भूषन बसन मगाए, नाना रंग अनूप सुहाए ||
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए, बसन भरत निज हाथ बनाए ||
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए, लंकापति रघुपति मन भाए ||
अंगद बैठ रहा नहिं डोला, प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ||

दोहा 
जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ,
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ||१७(क) ||
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि,
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ||१७(ख) ||

चौपाई 
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो, दीन दयाकर आरत बंधो ||
मरती बेर नाथ मोहि बाली, गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली ||
असरन सरन बिरदु संभारी, मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ||
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता, जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ||
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा, प्रभु तजि भवन काज मम काहा ||
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना, राखहु सरन नाथ जन दीना ||
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ, पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ||
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही, अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ||

दोहा 
अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव,
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ||१८(क) ||
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ,
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ||१८(ख) ||

चौपाई 
भरत अनुज सौमित्र समेता, पठवन चले भगत कृत चेता ||
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा, फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ||
बार बार कर दंड प्रनामा, मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ||
राम बिलोकनि बोलनि चलनी, सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ||
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी, चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी ||
अति आदर सब कपि पहुँचाए, भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ||
तब सुग्रीव चरन गहि नाना, भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ||
दिन दस करि रघुपति पद सेवा, पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ||
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा, सेवहु जाइ कृपा आगारा ||
अस कहि कपि सब चले तुरंता, अंगद कहइ सुनहु हनुमंता ||

दोहा 
कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि,
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ||१९(क) ||
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत,
तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत ||!९(ख) ||
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि,
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ||१९(ग) ||

चौपाई 
पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा, दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ||
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू, मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ||
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता, सदा रहेहु पुर आवत जाता ||
बचन सुनत उपजा सुख भारी, परेउ चरन भरि लोचन बारी ||
चरन नलिन उर धरि गृह आवा, प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ||
रघुपति चरित देखि पुरबासी, पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ||
राम राज बैंठें त्रेलोका, हरषित भए गए सब सोका ||
बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप बिषमता खोई ||

दोहा 
बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग,
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ||२० ||

चौपाई 
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ||
सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ||
चारिउ चरन धर्म जग माहीं, पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ||
राम भगति रत नर अरु नारी, सकल परम गति के अधिकारी ||
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा, सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ||
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ||
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी, नर अरु नारि चतुर सब गुनी ||
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी, सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ||

दोहा 
राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं ||
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ||२१ ||

चौपाई 
भूमि सप्त सागर मेखला, एक भूप रघुपति कोसला ||
भुअन अनेक रोम प्रति जासू, यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ||
सो महिमा समुझत प्रभु केरी, यह बरनत हीनता घनेरी ||
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी, फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ||
सोउ जाने कर फल यह लीला, कहहिं महा मुनिबर दमसीला ||
राम राज कर सुख संपदा, बरनि न सकइ फनीस सारदा ||
सब उदार सब पर उपकारी, बिप्र चरन सेवक नर नारी ||
एकनारि ब्रत रत सब झारी, ते मन बच क्रम पति हितकारी ||

दोहा 
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज,
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ||२२ ||

चौपाई 
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन, रहहि एक सँग गज पंचानन ||
खग मृग सहज बयरु बिसराई, सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ||
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा, अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ||
सीतल सुरभि पवन बह मंदा, गूंजत अलि लै चलि मकरंदा ||
लता बिटप मागें मधु चवहीं, मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं ||
ससि संपन्न सदा रह धरनी, त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी ||
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी, जगदातमा भूप जग जानी ||
सरिता सकल बहहिं बर बारी, सीतल अमल स्वाद सुखकारी ||
सागर निज मरजादाँ रहहीं, डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं ||
सरसिज संकुल सकल तड़ागा, अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ||

दोहा 
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज,
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ||२३ ||

चौपाई 
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे, दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ||
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर, गुनातीत अरु भोग पुरंदर ||
पति अनुकूल सदा रह सीता, सोभा खानि सुसील बिनीता ||
जानति कृपासिंधु प्रभुताई, सेवति चरन कमल मन लाई ||
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी, बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ||
निज कर गृह परिचरजा करई, रामचंद्र आयसु अनुसरई ||
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ, सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ||
कौसल्यादि सासु गृह माहीं, सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ||
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता, जगदंबा संततमनिंदिता ||

दोहा 
जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ,
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ||२४ ||

चौपाई 
सेवहिं सानकूल सब भाई, राम चरन रति अति अधिकाई ||
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं, कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं ||
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती ||
हरषित रहहिं नगर के लोगा, करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ||
अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं, श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं ||
दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए, लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ||
दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर, हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर ||
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे, भए रूप गुन सील घनेरे ||

दोहा 
ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार,
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार ||२५ ||

चौपाई 
प्रातकाल सरऊ करि मज्जन, बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन ||
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं, सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं ||
अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं, देखि सकल जननीं सुख भरहीं ||
भरत सत्रुहन दोनउ भाई, सहित पवनसुत उपबन जाई ||
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा, कह हनुमान सुमति अवगाहा ||
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं, बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं ||
सब कें गृह गृह होहिं पुराना, रामचरित पावन बिधि नाना ||
नर अरु नारि राम गुन गानहिं, करहिं दिवस निसि जात न जानहिं ||

दोहा 
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज,
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ||२६ ||

चौपाई 
नारदादि सनकादि मुनीसा, दरसन लागि कोसलाधीसा ||
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं, देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ||
जातरूप मनि रचित अटारीं, नाना रंग रुचिर गच ढारीं ||
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर, रचे कँगूरा रंग रंग बर ||
नव ग्रह निकर अनीक बनाई, जनु घेरी अमरावति आई ||
महि बहु रंग रचित गच काँचा, जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा ||
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत, कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत ||
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं, गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं ||

छंद  
मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची,
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची ||
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे,
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ||

दोहा 
चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ,
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ||२७ ||

चौपाई 
सुमन बाटिका सबहिं लगाई, बिबिध भाँति करि जतन बनाई ||
लता ललित बहु जाति सुहाई, फूलहिं सदा बंसत कि नाई ||
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर, मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर ||
नाना खग बालकन्हि जिआए, बोलत मधुर उड़ात सुहाए ||
मोर हंस सारस पारावत, भवननि पर सोभा अति पावत ||
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं, बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं ||
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक, कहहु राम रघुपति जनपालक ||
राज दुआर सकल बिधि चारू, बीथीं चौहट रूचिर बजारू ||
छं -बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए,
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए ||
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते,
सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे ||

दोहा 
उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर,
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर ||२८ ||

चौपाई 
दूरि फराक रुचिर सो घाटा, जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ||
पनिघट परम मनोहर नाना, तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना ||
राजघाट सब बिधि सुंदर बर, मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर ||
तीर तीर देवन्ह के मंदिर, चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर ||
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी, बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी ||
तीर तीर तुलसिका सुहाई, बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई ||
पुर सोभा कछु बरनि न जाई, बाहेर नगर परम रुचिराई ||
देखत पुरी अखिल अघ भागा, बन उपबन बापिका तड़ागा ||
छं -बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं,
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं ||
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं,
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं ||

दोहा 
रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ,
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ ||२९ ||

चौपाई 
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं, बैठि परसपर इहइ सिखावहिं ||
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि, सोभा सील रूप गुन धामहि ||
जलज बिलोचन स्यामल गातहि, पलक नयन इव सेवक त्रातहि ||
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि, संत कंज बन रबि रनधीरहि ||
काल कराल ब्याल खगराजहि, नमत राम अकाम ममता जहि ||
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि, मनसिज करि हरि जन सुखदातहि ||
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि, दनुज गहन घन दहन कृसानुहि ||
जनकसुता समेत रघुबीरहि, कस न भजहु भंजन भव भीरहि ||
बहु बासना मसक हिम रासिहि, सदा एकरस अज अबिनासिहि ||
मुनि रंजन भंजन महि भारहि, तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ||

दोहा 
एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान,
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान ||३० ||

चौपाई 
जब ते राम प्रताप खगेसा, उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ||
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका, बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ||
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी, प्रथम अबिद्या निसा नसानी ||
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने, काम क्रोध कैरव सकुचाने ||
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ, ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ||
मत्सर मान मोह मद चोरा, इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ||
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना, ए पंकज बिकसे बिधि नाना ||
सुख संतोष बिराग बिबेका, बिगत सोक ए कोक अनेका ||

दोहा 
यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास,
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास ||३१ ||

चौपाई 
भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा, संग परम प्रिय पवनकुमारा ||
सुंदर उपबन देखन गए, सब तरु कुसुमित पल्लव नए ||
जानि समय सनकादिक आए, तेज पुंज गुन सील सुहाए ||
ब्रह्मानंद सदा लयलीना, देखत बालक बहुकालीना ||
रूप धरें जनु चारिउ बेदा, समदरसी मुनि बिगत बिभेदा ||
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं, रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं ||
तहाँ रहे सनकादि भवानी, जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी ||
राम कथा मुनिबर बहु बरनी, ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी ||

दोहा 
देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह,
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ||३२ ||

चौपाई 
कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई, सहित पवनसुत सुख अधिकाई ||
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी, भए मगन मन सके न रोकी ||
स्यामल गात सरोरुह लोचन, सुंदरता मंदिर भव मोचन ||
एकटक रहे निमेष न लावहिं, प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं ||
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा, स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा ||
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे, परम मनोहर बचन उचारे ||
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा, तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा ||
बड़े भाग पाइब सतसंगा, बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा ||

दोहा 
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ,
कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ||३३ ||

चौपाई 
सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी, पुलकित तन अस्तुति अनुसारी ||
जय भगवंत अनंत अनामय, अनघ अनेक एक करुनामय ||
जय निर्गुन जय जय गुन सागर, सुख मंदिर सुंदर अति नागर ||
जय इंदिरा रमन जय भूधर, अनुपम अज अनादि सोभाकर ||
ग्यान निधान अमान मानप्रद, पावन सुजस पुरान बेद बद ||
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन, नाम अनेक अनाम निरंजन ||
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय, बससि सदा हम कहुँ परिपालय ||
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय, ह्रदि बसि राम काम मद गंजय ||

दोहा 
परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम,
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ||३४ ||

चौपाई 
देहु भगति रघुपति अति पावनि, त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि ||
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु, होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु ||
भव बारिधि कुंभज रघुनायक, सेवत सुलभ सकल सुख दायक ||
मन संभव दारुन दुख दारय, दीनबंधु समता बिस्तारय ||
आस त्रास इरिषादि निवारक, बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक ||
भूप मौलि मन मंडन धरनी, देहि भगति संसृति सरि तरनी ||
मुनि मन मानस हंस निरंतर, चरन कमल बंदित अज संकर ||
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक, काल करम सुभाउ गुन भच्छक ||
तारन तरन हरन सब दूषन, तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ||

दोहा 
बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ,
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ ||३५ ||

चौपाई 
सनकादिक बिधि लोक सिधाए, भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए ||
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं, चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं ||
सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी, जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी ||
अंतरजामी प्रभु सभ जाना, बूझत कहहु काह हनुमाना ||
जोरि पानि कह तब हनुमंता, सुनहु दीनदयाल भगवंता ||
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं, प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं ||
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ, भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ ||
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना, सुनहु नाथ प्रनतारति हरना ||

दोहा 
नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह,
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह ||३६ ||

चौपाई 
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई, मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई ||
संतन्ह कै महिमा रघुराई, बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई ||
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई, तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई ||
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन, कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन ||
संत असंत भेद बिलगाई, प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई ||
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता, अगनित श्रुति पुरान बिख्याता ||
संत असंतन्हि कै असि करनी, जिमि कुठार चंदन आचरनी ||
काटइ परसु मलय सुनु भाई, निज गुन देइ सुगंध बसाई ||

दोहा 
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड,
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड ||३७ ||

चौपाई 
बिषय अलंपट सील गुनाकर, पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ||
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी, लोभामरष हरष भय त्यागी ||
कोमलचित दीनन्ह पर दाया, मन बच क्रम मम भगति अमाया ||
सबहि मानप्रद आपु अमानी, भरत प्रान सम मम ते प्रानी ||
बिगत काम मम नाम परायन, सांति बिरति बिनती मुदितायन ||
सीतलता सरलता मयत्री, द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री ||
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर, जानेहु तात संत संतत फुर ||
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं, परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ||

दोहा 
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज,
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज ||३८ ||

चौपाई 
सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ, भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ ||
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई, जिमि कलपहि घालइ हरहाई ||
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी, जरहिं सदा पर संपति देखी ||
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई, हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ||
काम क्रोध मद लोभ परायन, निर्दय कपटी कुटिल मलायन ||
बयरु अकारन सब काहू सों, जो कर हित अनहित ताहू सों ||
झूठइ लेना झूठइ देना, झूठइ भोजन झूठ चबेना ||
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा, खाइ महा अति हृदय कठोरा ||

दोहा 
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद,
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ||३९ ||

चौपाई 
लोभइ ओढ़न लोभइ डासन, सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न ||
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई, स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ||
जब काहू कै देखहिं बिपती, सुखी भए मानहुँ जग नृपती ||
स्वारथ रत परिवार बिरोधी, लंपट काम लोभ अति क्रोधी ||
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं, आपु गए अरु घालहिं आनहिं ||
करहिं मोह बस द्रोह परावा, संत संग हरि कथा न भावा ||
अवगुन सिंधु मंदमति कामी, बेद बिदूषक परधन स्वामी ||
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा, दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा ||

दोहा 
ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं,
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ||४० ||

चौपाई 
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ||
निर्नय सकल पुरान बेद कर, कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर ||
नर सरीर धरि जे पर पीरा, करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ||
करहिं मोह बस नर अघ नाना, स्वारथ रत परलोक नसाना ||
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता, सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता ||
अस बिचारि जे परम सयाने, भजहिं मोहि संसृत दुख जाने ||
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक, भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक ||
संत असंतन्ह के गुन भाषे, ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे ||

दोहा 
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक,
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ||४१ ||

चौपाई 
श्रीमुख बचन सुनत सब भाई, हरषे प्रेम न हृदयँ समाई ||
करहिं बिनय अति बारहिं बारा, हनूमान हियँ हरष अपारा ||
पुनि रघुपति निज मंदिर गए, एहि बिधि चरित करत नित नए ||
बार बार नारद मुनि आवहिं, चरित पुनीत राम के गावहिं ||
नित नव चरन देखि मुनि जाहीं, ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं ||
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं, पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं ||
सनकादिक नारदहि सराहहिं, जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं ||
सुनि गुन गान समाधि बिसारी, सादर सुनहिं परम अधिकारी ||

दोहा 
जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान,
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ||४२ ||

चौपाई 
एक बार रघुनाथ बोलाए, गुर द्विज पुरबासी सब आए ||
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन, बोले बचन भगत भव भंजन ||
सनहु सकल पुरजन मम बानी, कहउँ न कछु ममता उर आनी ||
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई, सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ||
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई, मम अनुसासन मानै जोई ||
जौं अनीति कछु भाषौं भाई, तौं मोहि बरजहु भय बिसराई ||
बड़ें भाग मानुष तनु पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा ||
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा, पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ||

दोहा 
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ,
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ||४३ ||

चौपाई 
एहि तन कर फल बिषय न भाई, स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ||
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं, पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ||
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई, गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ||
आकर चारि लच्छ चौरासी, जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ||
फिरत सदा माया कर प्रेरा, काल कर्म सुभाव गुन घेरा ||
कबहुँक करि करुना नर देही, देत ईस बिनु हेतु सनेही ||
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो, सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ||

दोहा 
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ,
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||४४ ||

चौपाई 
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू, सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू ||
सुलभ सुखद मारग यह भाई, भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ||
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका, साधन कठिन न मन कहुँ टेका ||
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ, भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ||
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी, बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ||
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता, सतसंगति संसृति कर अंता ||
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा, मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ||
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा, जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ||

दोहा 
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि,
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि ||४५ ||

चौपाई 
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा, जोग न मख जप तप उपवासा ||
सरल सुभाव न मन कुटिलाई, जथा लाभ संतोष सदाई ||
मोर दास कहाइ नर आसा, करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ||
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई, एहि आचरन बस्य मैं भाई ||
बैर न बिग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा ||
अनारंभ अनिकेत अमानी, अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी ||
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा, तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ||
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई, दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ||

दोहा 
मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह,
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह ||४६ ||

चौपाई 
सुनत सुधासम बचन राम के, गहे सबनि पद कृपाधाम के ||
जननि जनक गुर बंधु हमारे, कृपा निधान प्रान ते प्यारे ||
तनु धनु धाम राम हितकारी, सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी ||
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ, मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ||
हेतु रहित जग जुग उपकारी, तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ||
स्वारथ मीत सकल जग माहीं, सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ||
सबके बचन प्रेम रस साने, सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने ||
निज निज गृह गए आयसु पाई, बरनत प्रभु बतकही सुहाई ||

दोहा 
उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप,
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ||४७ ||

चौपाई 
एक बार बसिष्ट मुनि आए, जहाँ राम सुखधाम सुहाए ||
अति आदर रघुनायक कीन्हा, पद पखारि पादोदक लीन्हा ||
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी, कृपासिंधु बिनती कछु मोरी ||
देखि देखि आचरन तुम्हारा, होत मोह मम हृदयँ अपारा ||
महिमा अमित बेद नहिं जाना, मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना ||
उपरोहित्य कर्म अति मंदा, बेद पुरान सुमृति कर निंदा ||
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही, कहा लाभ आगें सुत तोही ||
परमातमा ब्रह्म नर रूपा, होइहि रघुकुल भूषन भूपा ||

दोहा 
तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान,
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन ||४८ ||

चौपाई 
जप तप नियम जोग निज धर्मा, श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा ||
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन, जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन ||
आगम निगम पुरान अनेका, पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ||
तब पद पंकज प्रीति निरंतर, सब साधन कर यह फल सुंदर ||
छूटइ मल कि मलहि के धोएँ, घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ ||
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई, अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ||
सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित, सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित ||
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई, जाकें पद सरोज रति होई ||

दोहा 
नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु,
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु ||४९ ||

चौपाई 
अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए, कृपासिंधु के मन अति भाए ||
हनूमान भरतादिक भ्राता, संग लिए सेवक सुखदाता ||
पुनि कृपाल पुर बाहेर गए, गज रथ तुरग मगावत भए ||
देखि कृपा करि सकल सराहे, दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे ||
हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई, गए जहाँ सीतल अवँराई ||
भरत दीन्ह निज बसन डसाई, बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई ||
मारुतसुत तब मारूत करई, पुलक बपुष लोचन जल भरई ||
हनूमान सम नहिं बड़भागी, नहिं कोउ राम चरन अनुरागी ||
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई, बार बार प्रभु निज मुख गाई ||

दोहा 
तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन,
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन ||५० ||

चौपाई 
मामवलोकय पंकज लोचन, कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन ||
नील तामरस स्याम काम अरि, हृदय कंज मकरंद मधुप हरि ||
जातुधान बरूथ बल भंजन, मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन ||
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक, असरन सरन दीन जन गाहक ||
भुज बल बिपुल भार महि खंडित, खर दूषन बिराध बध पंडित ||
रावनारि सुखरूप भूपबर, जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर ||
सुजस पुरान बिदित निगमागम, गावत सुर मुनि संत समागम ||
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन, सब बिधि कुसल कोसला मंडन ||
कलि मल मथन नाम ममताहन, तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन ||

दोहा 
प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम,
सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम ||५१ ||

चौपाई 
गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा, मैं सब कही मोरि मति जथा ||
राम चरित सत कोटि अपारा, श्रुति सारदा न बरनै पारा ||
राम अनंत अनंत गुनानी, जन्म कर्म अनंत नामानी ||
जल सीकर महि रज गनि जाहीं, रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ||
बिमल कथा हरि पद दायनी, भगति होइ सुनि अनपायनी ||
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई, जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ||
कछुक राम गुन कहेउँ बखानी, अब का कहौं सो कहहु भवानी ||
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी, बोली अति बिनीत मृदु बानी ||
धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी, सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ||

दोहा 
तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह,
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ||५२(क) ||
नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर,
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ||५२(ख) ||

चौपाई 
राम चरित जे सुनत अघाहीं, रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ||
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ, हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ ||
भव सागर चह पार जो पावा, राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ||
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा, श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ||
श्रवनवंत अस को जग माहीं, जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं ||
ते जड़ जीव निजात्मक घाती, जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ||
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा, सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ||
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई, कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई ||

दोहा 
बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह,
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ||५३ ||

चौपाई 
नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ||
धर्मसील कोटिक महँ कोई, बिषय बिमुख बिराग रत होई ||
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई, सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ||
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ, जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ||
तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी, दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ||
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी, जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ||
सब ते सो दुर्लभ सुरराया, राम भगति रत गत मद माया ||
सो हरिभगति काग किमि पाई, बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ||

दोहा 
राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर,
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ||५४ ||

चौपाई 
यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा, कहहु कृपाल काग कहँ पावा ||
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी, कहहु मोहि अति कौतुक भारी ||
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी, हरि सेवक अति निकट निवासी ||
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई, सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ||
कहहु कवन बिधि भा संबादा, दोउ हरिभगत काग उरगादा ||
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई, बोले सिव सादर सुख पाई ||
धन्य सती पावन मति तोरी, रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ||
सुनहु परम पुनीत इतिहासा, जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ||
उपजइ राम चरन बिस्वासा, भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ||

दोहा 
ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ,
सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ||५५ ||

चौपाई 
मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि, सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि ||
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा, सती नाम तब रहा तुम्हारा ||
दच्छ जग्य तब भा अपमाना, तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ||
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा, जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा ||
तब अति सोच भयउ मन मोरें, दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें ||
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा, कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ||
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी, नील सैल एक सुन्दर भूरी ||
तासु कनकमय सिखर सुहाए, चारि चारु मोरे मन भाए ||
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला, बट पीपर पाकरी रसाला ||
सैलोपरि सर सुंदर सोहा, मनि सोपान देखि मन मोहा ||

दोहा 
सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग,
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग ||५६ ||

चौपाई 
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई, तासु नास कल्पांत न होई ||
माया कृत गुन दोष अनेका, मोह मनोज आदि अबिबेका ||
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं, तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ||
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा, सो सुनु उमा सहित अनुरागा ||
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई, जाप जग्य पाकरि तर करई ||
आँब छाहँ कर मानस पूजा, तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ||
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा, आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ||
राम चरित बिचीत्र बिधि नाना, प्रेम सहित कर सादर गाना ||
सुनहिं सकल मति बिमल मराला, बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला ||
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा, उर उपजा आनंद बिसेषा ||

दोहा 
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास,
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ||५७ ||

चौपाई 
गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा, मैं जेहि समय गयउँ खग पासा ||
अब सो कथा सुनहु जेही हेतू, गयउ काग पहिं खग कुल केतू ||
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा, समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा ||
इंद्रजीत कर आपु बँधायो, तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ||
बंधन काटि गयो उरगादा, उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा ||
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती, करत बिचार उरग आराती ||
ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा, माया मोह पार परमीसा ||
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं, देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं ||

दोहा 
भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम,
खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ||५८ ||

चौपाई 
नाना भाँति मनहि समुझावा, प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ||
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई, भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई ||
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं, कहेसि जो संसय निज मन माहीं ||
सुनि नारदहि लागि अति दाया, सुनु खग प्रबल राम कै माया ||
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई, बरिआई बिमोह मन करई ||
जेहिं बहु बार नचावा मोही, सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही ||
महामोह उपजा उर तोरें, मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें ||
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा, सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ||

दोहा 
अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान,
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ||५९ ||

चौपाई 
तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ, निज संदेह सुनावत भयऊ ||
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा, समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ||
मन महुँ करइ बिचार बिधाता, माया बस कबि कोबिद ग्याता ||
हरि माया कर अमिति प्रभावा, बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ||
अग जगमय जग मम उपराजा, नहिं आचरज मोह खगराजा ||
तब बोले बिधि गिरा सुहाई, जान महेस राम प्रभुताई ||
बैनतेय संकर पहिं जाहू, तात अनत पूछहु जनि काहू ||
तहँ होइहि तव संसय हानी, चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी ||

दोहा 
परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास,
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ||६० ||

चौपाई 
तेहिं मम पद सादर सिरु नावा, पुनि आपन संदेह सुनावा ||
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी, परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ||
मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही, कवन भाँति समुझावौं तोही ||
तबहि होइ सब संसय भंगा, जब बहु काल करिअ सतसंगा ||
सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई, नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ||
जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना, प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ||
नित हरि कथा होत जहँ भाई, पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ||
जाइहि सुनत सकल संदेहा, राम चरन होइहि अति नेहा ||

दोहा 
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग,
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ||६१ ||

चौपाई 
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ||
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला, तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला ||
राम भगति पथ परम प्रबीना, ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ||
राम कथा सो कहइ निरंतर, सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ||
जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी, होइहि मोह जनित दुख दूरी ||
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई, चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई ||
ताते उमा न मैं समुझावा, रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा ||
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना, सो खौवै चह कृपानिधाना ||
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा, समुझइ खग खगही कै भाषा ||
प्रभु माया बलवंत भवानी, जाहि न मोह कवन अस ग्यानी ||

दोहा 
ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान,
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान ||६२(क) ||

।। मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम ।।

दोहा 
सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन,
अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ||६२(ख) ||

चौपाई 
गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा, मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ||
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ, माया मोह सोच सब गयऊ ||
करि तड़ाग मज्जन जलपाना, बट तर गयउ हृदयँ हरषाना ||
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए, सुनै राम के चरित सुहाए ||
कथा अरंभ करै सोइ चाहा, तेही समय गयउ खगनाहा ||
आवत देखि सकल खगराजा, हरषेउ बायस सहित समाजा ||
अति आदर खगपति कर कीन्हा, स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ||
करि पूजा समेत अनुरागा, मधुर बचन तब बोलेउ कागा ||

दोहा 
नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज,
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ||६३(क) ||
सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस,
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ||६३(ख) ||

चौपाई 
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ, सो सब भयउ दरस तव पायउँ ||
देखि परम पावन तव आश्रम, गयउ मोह संसय नाना भ्रम ||
अब श्रीराम कथा अति पावनि, सदा सुखद दुख पुंज नसावनि ||
सादर तात सुनावहु मोही, बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ||
सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता, सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ||
भयउ तासु मन परम उछाहा, लाग कहै रघुपति गुन गाहा ||
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी, रामचरित सर कहेसि बखानी ||
पुनि नारद कर मोह अपारा, कहेसि बहुरि रावन अवतारा ||
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई, तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ||

दोहा 
बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह,
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ||६४ ||

चौपाई 
बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा, पुनि नृप बचन राज रस भंगा ||
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा, कहेसि राम लछिमन संबादा ||
बिपिन गवन केवट अनुरागा, सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ||
बालमीक प्रभु मिलन बखाना, चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ||
सचिवागवन नगर नृप मरना, भरतागवन प्रेम बहु बरना ||
करि नृप क्रिया संग पुरबासी, भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी ||
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए, लै पादुका अवधपुर आए ||
भरत रहनि सुरपति सुत करनी, प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी ||

दोहा 
कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ||
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग ||६५ ||

चौपाई 
कहि दंडक बन पावनताई, गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई ||
पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा, भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा ||
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा, सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ||
खर दूषन बध बहुरि बखाना, जिमि सब मरमु दसानन जाना ||
दसकंधर मारीच बतकहीं, जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही ||
पुनि माया सीता कर हरना, श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ||
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही, बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही ||
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा, जेहि बिधि गए सरोबर तीरा ||

दोहा 
प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग,
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ||६६((क) ||
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास,
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ||६६(ख) ||

चौपाई 
जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए, सीता खोज सकल दिसि धाए ||
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती, कपिन्ह बहोरि मिला संपाती ||
सुनि सब कथा समीरकुमारा, नाघत भयउ पयोधि अपारा ||
लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा, पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ||
बन उजारि रावनहि प्रबोधी, पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ||
आए कपि सब जहँ रघुराई, बैदेही कि कुसल सुनाई ||
सेन समेति जथा रघुबीरा, उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ||
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई, सागर निग्रह कथा सुनाई ||

दोहा 
सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार,
गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ||६७(क) ||
निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार,
कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ||६७(ख) ||

चौपाई 
निसिचर निकर मरन बिधि नाना, रघुपति रावन समर बखाना ||
रावन बध मंदोदरि सोका, राज बिभीषण देव असोका ||
सीता रघुपति मिलन बहोरी, सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ||
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता, अवध चले प्रभु कृपा निकेता ||
जेहि बिधि राम नगर निज आए, बायस बिसद चरित सब गाए ||
कहेसि बहोरि राम अभिषैका, पुर बरनत नृपनीति अनेका ||
कथा समस्त भुसुंड बखानी, जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ||
सुनि सब राम कथा खगनाहा, कहत बचन मन परम उछाहा ||

सोरठा 
गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित,
भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ||६८(क) ||
मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि,
चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन, ६८(ख) ||

चौपाई 
देखि चरित अति नर अनुसारी, भयउ हृदयँ मम संसय भारी ||
सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना, कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ||
जो अति आतप ब्याकुल होई, तरु छाया सुख जानइ सोई ||
जौं नहिं होत मोह अति मोही, मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ||
सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई, अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ||
निगमागम पुरान मत एहा, कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा ||
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही, चितवहिं राम कृपा करि जेही ||
राम कृपाँ तव दरसन भयऊ, तव प्रसाद सब संसय गयऊ ||

दोहा 
सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग,
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ||६९(क) ||
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास,
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ||६९(ख) ||

चौपाई 
बोलेउ काकभसुंड बहोरी, नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ||
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे, कृपापात्र रघुनायक केरे ||
तुम्हहि न संसय मोह न माया, मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ||
पठइ मोह मिस खगपति तोही, रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही ||
तुम्ह निज मोह कही खग साईं, सो नहिं कछु आचरज गोसाईं ||
नारद भव बिरंचि सनकादी, जे मुनिनायक आतमबादी ||
मोह न अंध कीन्ह केहि केही, को जग काम नचाव न जेही ||
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा, केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ||

दोहा 
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार,
केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ||७०(क) ||
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि,
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ||७०(ख) ||

चौपाई 
गुन कृत सन्यपात नहिं केही, कोउ न मान मद तजेउ निबेही ||
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा, ममता केहि कर जस न नसावा ||
मच्छर काहि कलंक न लावा, काहि न सोक समीर डोलावा ||
चिंता साँपिनि को नहिं खाया, को जग जाहि न ब्यापी माया ||
कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा ||
सुत बित लोक ईषना तीनी, केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ||
यह सब माया कर परिवारा, प्रबल अमिति को बरनै पारा ||
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं, अपर जीव केहि लेखे माहीं ||

दोहा 
ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ||
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ||७१(क) ||
सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि,
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ||७१(ख) ||

चौपाई 
जो माया सब जगहि नचावा, जासु चरित लखि काहुँ न पावा ||
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा, नाच नटी इव सहित समाजा ||
सोइ सच्चिदानंद घन रामा, अज बिग्यान रूपो बल धामा ||
ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता, अखिल अमोघसक्ति भगवंता ||
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता, सबदरसी अनवद्य अजीता ||
निर्मम निराकार निरमोहा, नित्य निरंजन सुख संदोहा ||
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी, ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ||
इहाँ मोह कर कारन नाहीं, रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ||

दोहा 
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप,
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ||७२(क) ||
जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ,
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ||७२(ख) ||

चौपाई 
असि रघुपति लीला उरगारी, दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ||
जे मति मलिन बिषयबस कामी, प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ||
नयन दोष जा कहँ जब होई, पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ||
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा, सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ||
नौकारूढ़ चलत जग देखा, अचल मोह बस आपुहि लेखा ||
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं, कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ||
हरि बिषइक अस मोह बिहंगा, सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ||
मायाबस मतिमंद अभागी, हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ||
ते सठ हठ बस संसय करहीं, निज अग्यान राम पर धरहीं ||

दोहा 
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप,
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ||७३(क) ||
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ,
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ||७३(ख) ||

चौपाई 
सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई, कहउँ जथामति कथा सुहाई ||
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही, सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ||
राम कृपा भाजन तुम्ह ताता, हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ||
ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ, परम रहस्य मनोहर गावउँ ||
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ, जन अभिमान न राखहिं काऊ ||
संसृत मूल सूलप्रद नाना, सकल सोक दायक अभिमाना ||
ताते करहिं कृपानिधि दूरी, सेवक पर ममता अति भूरी ||
जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई, मातु चिराव कठिन की नाईं ||

दोहा 
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर,
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ||७४(क) ||
तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि,
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ||७४(ख) ||

चौपाई 
राम कृपा आपनि जड़ताई, कहउँ खगेस सुनहु मन लाई ||
जब जब राम मनुज तनु धरहीं, भक्त हेतु लील बहु करहीं ||
तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ, बालचरित बिलोकि हरषाऊँ ||
जन्म महोत्सव देखउँ जाई, बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई ||
इष्टदेव मम बालक रामा, सोभा बपुष कोटि सत कामा ||
निज प्रभु बदन निहारि निहारी, लोचन सुफल करउँ उरगारी ||
लघु बायस बपु धरि हरि संगा, देखउँ बालचरित बहुरंगा ||

दोहा 
लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ,
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ||७५(क) ||
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर,
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ||७५(ख) ||

चौपाई 
कहइ भसुंड सुनहु खगनायक, रामचरित सेवक सुखदायक ||
नृपमंदिर सुंदर सब भाँती, खचित कनक मनि नाना जाती ||
बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई, जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ||
बालबिनोद करत रघुराई, बिचरत अजिर जननि सुखदाई ||
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा, अंग अंग प्रति छबि बहु कामा ||
नव राजीव अरुन मृदु चरना, पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ||
ललित अंक कुलिसादिक चारी, नूपुर चारू मधुर रवकारी ||
चारु पुरट मनि रचित बनाई, कटि किंकिन कल मुखर सुहाई ||

दोहा 
रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर,
उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ||७६ ||

चौपाई 
अरुन पानि नख करज मनोहर, बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ||
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा, चारु चिबुक आनन छबि सींवा ||
कलबल बचन अधर अरुनारे, दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ||
ललित कपोल मनोहर नासा, सकल सुखद ससि कर सम हासा ||
नील कंज लोचन भव मोचन, भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ||
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए, कुंचित कच मेचक छबि छाए ||
पीत झीनि झगुली तन सोही, किलकनि चितवनि भावति मोही ||
रूप रासि नृप अजिर बिहारी, नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी ||
मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा, बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा ||
किलकत मोहि धरन जब धावहिं, चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ||

दोहा 
आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं,
जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ||७७(क) ||
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह,
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह ||७७(ख) ||

चौपाई 
एतना मन आनत खगराया, रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ||
सो माया न दुखद मोहि काहीं, आन जीव इव संसृत नाहीं ||
नाथ इहाँ कछु कारन आना, सुनहु सो सावधान हरिजाना ||
ग्यान अखंड एक सीताबर, माया बस्य जीव सचराचर ||
जौं सब कें रह ग्यान एकरस, ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ||
माया बस्य जीव अभिमानी, ईस बस्य माया गुनखानी ||
परबस जीव स्वबस भगवंता, जीव अनेक एक श्रीकंता ||
मुधा भेद जद्यपि कृत माया, बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ||

दोहा 
रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान,
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ||७८(क) ||
राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ||
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ||७८(ख) ||

चौपाई 
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा, मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ||
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या, प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ||
ताते नास न होइ दास कर, भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर ||
भ्रम ते चकित राम मोहि देखा, बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ||
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ, जाना अनुज न मातु पिताहूँ ||
जानु पानि धाए मोहि धरना, स्यामल गात अरुन कर चरना ||
तब मैं भागि चलेउँ उरगामी, राम गहन कहँ भुजा पसारी ||
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा, तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा ||

दोहा 
ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात,
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ||७९(क) ||
सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि,
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि ||७९(ख) ||

चौपाई 
मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ, पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ ||
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं, बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं ||
उदर माझ सुनु अंडज राया, देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया ||
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका, रचना अधिक एक ते एका ||
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा, अगनित उडगन रबि रजनीसा ||
अगनित लोकपाल जम काला, अगनित भूधर भूमि बिसाला ||
सागर सरि सर बिपिन अपारा, नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ||
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर, चारि प्रकार जीव सचराचर ||

दोहा 
जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ,
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ||८०(क) ||
एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक,
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ||८०(ख) ||

चौपाई 
लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता, भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ||
नर गंधर्ब भूत बेताला, किंनर निसिचर पसु खग ब्याला ||
देव दनुज गन नाना जाती, सकल जीव तहँ आनहि भाँती ||
महि सरि सागर सर गिरि नाना, सब प्रपंच तहँ आनइ आना ||
अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा, देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ||
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी, सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ||
दसरथ कौसल्या सुनु ताता, बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ||
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा, देखउँ बालबिनोद अपारा ||

दोहा 
भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान,
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ||८१(क) ||
सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर,
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर ||८१(ख)

चौपाई 
भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका, बीते मनहुँ कल्प सत एका ||
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ, तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ ||
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ, निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ||
देखउँ जन्म महोत्सव जाई, जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ||
राम उदर देखेउँ जग नाना, देखत बनइ न जाइ बखाना ||
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना, माया पति कृपाल भगवाना ||
करउँ बिचार बहोरि बहोरी, मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ||
उभय घरी महँ मैं सब देखा, भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ||

दोहा 
देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर,
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर ||८२(क) ||
सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम,
कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ||८२(ख) ||

चौपाई 
देखि चरित यह सो प्रभुताई, समुझत देह दसा बिसराई ||
धरनि परेउँ मुख आव न बाता, त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ||
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी, निज माया प्रभुता तब रोकी ||
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ, दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ||
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा, सेवक सुखद कृपा संदोहा ||
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी, मन महँ होइ हरष अति भारी ||
भगत बछलता प्रभु कै देखी, उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ||
सजल नयन पुलकित कर जोरी, कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ||

दोहा 
सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास,
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ||८३(क) ||
काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि,
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ||८३(ख) ||

चौपाई 
ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना, मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ||
आजु देउँ सब संसय नाहीं, मागु जो तोहि भाव मन माहीं ||
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ, मन अनुमान करन तब लागेऊँ ||
प्रभु कह देन सकल सुख सही, भगति आपनी देन न कही ||
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे, लवन बिना बहु बिंजन जैसे ||
भजन हीन सुख कवने काजा, अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ||
जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू, मो पर करहु कृपा अरु नेहू ||
मन भावत बर मागउँ स्वामी, तुम्ह उदार उर अंतरजामी ||

दोहा 
अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव,
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ||८४(क) ||
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम,
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ||८४(ख) ||

चौपाई 
एवमस्तु कहि रघुकुलनायक, बोले बचन परम सुखदायक ||
सुनु बायस तैं सहज सयाना, काहे न मागसि अस बरदाना ||
सब सुख खानि भगति तैं मागी, नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ||
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं, जे जप जोग अनल तन दहहीं ||
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई, मागेहु भगति मोहि अति भाई ||
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें, सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें ||
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा, जोग चरित्र रहस्य बिभागा ||
जानब तैं सबही कर भेदा, मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ||

दोहा 
माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि,
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ||८५(क) ||
मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग,
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ||८५(ख) ||

चौपाई 
अब सुनु परम बिमल मम बानी, सत्य सुगम निगमादि बखानी ||
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही, सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ||
मम माया संभव संसारा, जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ||
सब मम प्रिय सब मम उपजाए, सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ||
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी, तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ||
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी, ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ||
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा, जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ||
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं, मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं ||
भगति हीन बिरंचि किन होई, सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ||
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी, मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ||

दोहा 
सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग,
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ||८६ ||

चौपाई 
एक पिता के बिपुल कुमारा, होहिं पृथक गुन सील अचारा ||
कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता, कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ||
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई, सब पर पितहि प्रीति सम होई ||
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा, सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ||
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना, जद्यपि सो सब भाँति अयाना ||
एहि बिधि जीव चराचर जेते, त्रिजग देव नर असुर समेते ||
अखिल बिस्व यह मोर उपाया, सब पर मोहि बराबरि दाया ||
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया, भजै मोहि मन बच अरू काया ||

दोहा 
पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ,
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ||८७(क) ||

सोरठा  
सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय,
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ||८७(ख) ||

चौपाई 
कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही, सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही ||
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ, तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ ||
सो सुख जानइ मन अरु काना, नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ||
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना, कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ||
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई, लगे करन सिसु कौतुक तेई ||
सजल नयन कछु मुख करि रूखा, चितइ मातु लागी अति भूखा ||
देखि मातु आतुर उठि धाई, कहि मृदु बचन लिए उर लाई ||
गोद राखि कराव पय पाना, रघुपति चरित ललित कर गाना ||

सोरठा 
जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद,
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन ||८८(क) ||
सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ,
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ||८८(ख) ||

चौपाई 
मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला, देखेउँ बालबिनोद रसाला ||
राम प्रसाद भगति बर पायउँ, प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ ||
तब ते मोहि न ब्यापी माया, जब ते रघुनायक अपनाया ||
यह सब गुप्त चरित मैं गावा, हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ||
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ||
राम कृपा बिनु सुनु खगराई, जानि न जाइ राम प्रभुताई ||
जानें बिनु न होइ परतीती, बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ||
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई, जिमि खगपति जल कै चिकनाई ||

दोहा 
बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु,
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ||८९(क) ||
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु,
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ||८९(ख) ||

चौपाई 
बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ||
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा, थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ||
बिनु बिग्यान कि समता आवइ, कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ||
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई, बिनु महि गंध कि पावइ कोई ||
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा, जल बिनु रस कि होइ संसारा ||
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई, जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ||
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा, परस कि होइ बिहीन समीरा ||
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा, बिनु हरि भजन न भव भय नासा ||

दोहा 
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु,
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ||९०(क) ||

सोरठा  
अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल,
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ||९०(ख) ||

चौपाई 
निज मति सरिस नाथ मैं गाई, प्रभु प्रताप महिमा खगराई ||
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी, यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ||
महिमा नाम रूप गुन गाथा, सकल अमित अनंत रघुनाथा ||
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं, निगम सेष सिव पार न पावहिं ||
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता, नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ||
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा, तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ||
रामु काम सत कोटि सुभग तन, दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ||
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा, नभ सत कोटि अमित अवकासा ||

दोहा 
मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास,
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ||९१(क) ||
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत,
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ||९१(ख) ||

चौपाई 
अगाध सत कोटि पताला, समन कोटि सत सरिस कराला ||
तीरथ अमित कोटि सम पावन, नाम अखिल अघ पूग नसावन ||
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा, सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ||
कामधेनु सत कोटि समाना, सकल काम दायक भगवाना ||
सारद कोटि अमित चतुराई, बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ||
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता, रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ||
धनद कोटि सत सम धनवाना, माया कोटि प्रपंच निधाना ||
भार धरन सत कोटि अहीसा, निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ||

छंद  
निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै,
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ||
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं,
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ||

दोहा 
रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ,
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ||९२(क) ||
सो -भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन,
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ||९२(ख) ||

चौपाई 
सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए, हरषित खगपति पंख फुलाए ||
नयन नीर मन अति हरषाना, श्रीरघुपति प्रताप उर आना ||
पाछिल मोह समुझि पछिताना, ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ||
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा, जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ||
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई, जौं बिरंचि संकर सम होई ||
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता, दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ||
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक, मोहि जिआयउ जन सुखदायक ||
तव प्रसाद मम मोह नसाना, राम रहस्य अनूपम जाना ||

दोहा 
ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि,
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ||९३(क) ||
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि,
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ||९३(ख) ||

चौपाई 
तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा, सुमति सुसील सरल आचारा ||
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा, रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ||
कारन कवन देह यह पाई, तात सकल मोहि कहहु बुझाई ||
राम चरित सर सुंदर स्वामी, पायहु कहाँ कहहु नभगामी ||
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं, महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ||
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई, सोउ मोरें मन संसय अहई ||
अग जग जीव नाग नर देवा, नाथ सकल जगु काल कलेवा ||
अंड कटाह अमित लय कारी, कालु सदा दुरतिक्रम भारी ||

सोरठा   
तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन,
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ||९४(क) ||

दोहा 
प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग,
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ||९४(ख) ||

चौपाई 
गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा, बोलेउ उमा परम अनुरागा ||
धन्य धन्य तव मति उरगारी, प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ||
सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई, बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ||
सब निज कथा कहउँ मैं गाई, तात सुनहु सादर मन लाई ||
जप तप मख सम दम ब्रत दाना, बिरति बिबेक जोग बिग्याना ||
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा, तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ||
एहि तन राम भगति मैं पाई, ताते मोहि ममता अधिकाई ||
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई, तेहि पर ममता कर सब कोई ||

सोरठा 
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं,
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ||९५(क) ||
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर,
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ||९५(ख) ||

चौपाई 
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा, मन क्रम बचन राम पद नेहा ||
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा, जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ||
राम बिमुख लहि बिधि सम देही, कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ||
राम भगति एहिं तन उर जामी, ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ||
तजउँ न तन निज इच्छा मरना, तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ||
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा, राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ||
नाना जनम कर्म पुनि नाना, किए जोग जप तप मख दाना ||
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं, मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ||
देखेउँ करि सब करम गोसाई, सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ||
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी, सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ||

दोहा 
प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस,
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ||९६(क) ||
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ||
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ||९६(ख) ||

चौपाई 
तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई, जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ||
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी, आन देव निंदक अभिमानी ||
धन मद मत्त परम बाचाला, उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ||
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी, तदपि न कछु महिमा तब जानी ||
अब जाना मैं अवध प्रभावा, निगमागम पुरान अस गावा ||
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई, राम परायन सो परि होई ||
अवध प्रभाव जान तब प्रानी, जब उर बसहिं रामु धनुपानी ||
सो कलिकाल कठिन उरगारी, पाप परायन सब नर नारी ||

दोहा 
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ,
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ||९७(क) ||
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म,
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ||९७(ख) ||

चौपाई 
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी, श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ||
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन, कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ||
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा, पंडित सोइ जो गाल बजावा ||
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई, ता कहुँ संत कहइ सब कोई ||
सोइ सयान जो परधन हारी, जो कर दंभ सो बड़ आचारी ||
जौ कह झूँठ मसखरी जाना, कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ||
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी, कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ||
जाकें नख अरु जटा बिसाला, सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ||

दोहा 
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं,
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ||९८(क) ||
सो -जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ,
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ||९८(ख) ||

चौपाई 
नारि बिबस नर सकल गोसाई, नाचहिं नट मर्कट की नाई ||
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना, मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ||
सब नर काम लोभ रत क्रोधी, देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ||
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी, भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ||
सौभागिनीं बिभूषन हीना, बिधवन्ह के सिंगार नबीना ||
गुर सिष बधिर अंध का लेखा, एक न सुनइ एक नहिं देखा ||
हरइ सिष्य धन सोक न हरई, सो गुर घोर नरक महुँ परई ||
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं, उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ||

दोहा 
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात,
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ||९९(क) ||
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि,
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ||९९(ख) ||

चौपाई 
पर त्रिय लंपट कपट सयाने, मोह द्रोह ममता लपटाने ||
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर, देखा में चरित्र कलिजुग कर ||
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं, जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ||
कल्प कल्प भरि एक एक नरका, परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ||
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा ||
नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ||
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं, उभय लोक निज हाथ नसावहिं ||
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी, निराचार सठ बृषली स्वामी ||
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना, बैठि बरासन कहहिं पुराना ||
सब नर कल्पित करहिं अचारा, जाइ न बरनि अनीति अपारा ||

दोहा 
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग,
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ||१००(क) ||
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक,
तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ||१००(ख) ||

चौपाई 
बहु दाम सँवारहिं धाम जती, बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ||
तपसी धनवंत दरिद्र गृही, कलि कौतुक तात न जात कही ||
कुलवंति निकारहिं नारि सती, गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ||
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं, अबलानन दीख नहीं जब लौं ||
ससुरारि पिआरि लगी जब तें, रिपरूप कुटुंब भए तब तें ||
नृप पाप परायन धर्म नहीं, करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ||
धनवंत कुलीन मलीन अपी, द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ||
नहिं मान पुरान न बेदहि जो, हरि सेवक संत सही कलि सो,
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी, गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी ||
कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ||

दोहा 
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड,
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड ||१०१(क) ||
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान,
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ||१०१(ख) ||

छंद  
अबला कच भूषन भूरि छुधा, धनहीन दुखी ममता बहुधा ||
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता, मति थोरि कठोरि न कोमलता ||१ ||
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं, अभिमान बिरोध अकारनहीं ||
लघु जीवन संबतु पंच दसा, कलपांत न नास गुमानु असा ||२ ||
कलिकाल बिहाल किए मनुजा, नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा,
नहिं तोष बिचार न सीतलता, सब जाति कुजाति भए मगता ||३ ||
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता, भरि पूरि रही समता बिगता ||
सब लोग बियोग बिसोक हुए, बरनाश्रम धर्म अचार गए ||४ ||
दम दान दया नहिं जानपनी, जड़ता परबंचनताति घनी ||
तनु पोषक नारि नरा सगरे, परनिंदक जे जग मो बगरे ||५ ||

दोहा 
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार,
गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ||१०२(क) ||
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग,
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ||१०२(ख) ||

चौपाई 
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी, करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ||
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं, प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं ||
द्वापर करि रघुपति पद पूजा, नर भव तरहिं उपाय न दूजा ||
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा, गावत नर पावहिं भव थाहा ||
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना, एक अधार राम गुन गाना ||
सब भरोस तजि जो भज रामहि, प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ||
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं, नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ||
कलि कर एक पुनीत प्रतापा, मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ||

दोहा 
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास,
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ||१०३(क) ||
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान,
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ||१०३(ख) ||

चौपाई 
नित जुग धर्म होहिं सब केरे, हृदयँ राम माया के प्रेरे ||
सुद्ध सत्व समता बिग्याना, कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ||
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा, सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ||
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस, द्वापर धर्म हरष भय मानस ||
तामस बहुत रजोगुन थोरा, कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ||
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं, तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ||
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही, रघुपति चरन प्रीति अति जाही ||
नट कृत बिकट कपट खगराया, नट सेवकहि न ब्यापइ माया ||

दोहा 
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं,
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ||१०४(क) ||
तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस,
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस ||१०४(ख) ||

चौपाई 
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी, दीन मलीन दरिद्र दुखारी ||
गएँ काल कछु संपति पाई, तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई ||
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा, करइ सदा तेहि काजु न दूजा ||
परम साधु परमारथ बिंदक, संभु उपासक नहिं हरि निंदक ||
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता, द्विज दयाल अति नीति निकेता ||
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं, बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं ||
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा, सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ||
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई, हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई ||

दोहा 
मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह,
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह ||१०५(क) ||

सोरठा  
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम,
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई ||१०५(ख) ||

चौपाई 
एक बार गुर लीन्ह बोलाई, मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ||
सिव सेवा कर फल सुत सोई, अबिरल भगति राम पद होई ||
रामहि भजहिं तात सिव धाता, नर पावँर कै केतिक बाता ||
जासु चरन अज सिव अनुरागी, तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ||
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ, सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ||
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ, भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ||
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती, गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती ||
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा, पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ||
जेहि ते नीच बड़ाई पावा, सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ||
धूम अनल संभव सुनु भाई, तेहि बुझाव घन पदवी पाई ||
रज मग परी निरादर रहई, सब कर पद प्रहार नित सहई ||
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई, पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ||
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा, बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ||
कबि कोबिद गावहिं असि नीती, खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ||
उदासीन नित रहिअ गोसाईं, खल परिहरिअ स्वान की नाईं ||
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई, गुर हित कहइ न मोहि सोहाई ||

दोहा 
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम,
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ||१०६(क) ||
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस,
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ||१०६(ख) ||

चौपाई 
मंदिर माझ भई नभ बानी, रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ||
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा, अति कृपाल चित सम्यक बोधा ||
तदपि साप सठ दैहउँ तोही, नीति बिरोध सोहाइ न मोही ||
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा, भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ||
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं, रौरव नरक कोटि जुग परहीं ||
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा, अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ||
बैठ रहेसि अजगर इव पापी, सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ||
महा बिटप कोटर महुँ जाई, रहु अधमाधम अधगति पाई ||

दोहा 
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ||
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ||१०७(क) ||
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि,
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ||१०७(ख) ||
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं,
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह, चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ||
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं, गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ||
करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसारपारं नतोऽहं ||
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं ||
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा, लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ||
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ||
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ||
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ||
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ||
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनान्ददाता पुरारी ||
चिदानंदसंदोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ||
न यावद उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परे वा नराणां ||
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ||
न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ||
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ||

श्लोक 
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये,
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ||९ ||

दोहा 
सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु,
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ||१०८(क) ||
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु,
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ||१०८(ख) ||
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान,
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान ||१०८(ग) ||
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल,
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ||१०८(घ) ||

चौपाई 
एहि कर होइ परम कल्याना, सोइ करहु अब कृपानिधाना ||
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी, एवमस्तु इति भइ नभबानी ||
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा, मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ||
तदपि तुम्हार साधुता देखी, करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ||
छमासील जे पर उपकारी, ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ||
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि, जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ||
जनमत मरत दुसह दुख होई, अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ||
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना, सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ||
रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ, पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ ||
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें, राम भगति उपजिहि उर तोरें ||
सुनु मम बचन सत्य अब भाई, हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ||
अब जनि करहि बिप्र अपमाना, जानेहु संत अनंत समाना ||
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला, कालदंड हरि चक्र कराला ||
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई, बिप्रद्रोह पावक सो जरई ||
अस बिबेक राखेहु मन माहीं, तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ||
औरउ एक आसिषा मोरी, अप्रतिहत गति होइहि तोरी ||

दोहा 
सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि,
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ||१०९(क) ||
प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल,
पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल ||१०९(ख) ||
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान,
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ||१०९(ग) ||
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस,
एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस ||१०९(घ) ||

चौपाई 
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ, तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ||
एक सूल मोहि बिसर न काऊ, गुर कर कोमल सील सुभाऊ ||
चरम देह द्विज कै मैं पाई, सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ||
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला, करउँ सकल रघुनायक लीला ||
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा, समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ||
मन ते सकल बासना भागी, केवल राम चरन लय लागी ||
कहु खगेस अस कवन अभागी, खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ||
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई, हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ||
भए कालबस जब पितु माता, मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ||
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ, आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ||
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा, कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ||
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा, अब्याहत गति संभु प्रसादा ||
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी, एक लालसा उर अति बाढ़ी ||
राम चरन बारिज जब देखौं, तब निज जन्म सफल करि लेखौं ||
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई, ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ||
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई, सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ||

दोहा 
गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग,
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ||११०(क) ||
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन,
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ||११०(ख) ||
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज,
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ||११०(ग) ||
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान,
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ||११०(घ) ||

चौपाई 
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा, कहे कछुक सादर खगनाथा ||
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि, मोहि परम अधिकारी जानी ||
लागे करन ब्रह्म उपदेसा, अज अद्वेत अगुन हृदयेसा ||
अकल अनीह अनाम अरुपा, अनुभव गम्य अखंड अनूपा ||
मन गोतीत अमल अबिनासी, निर्बिकार निरवधि सुख रासी ||
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा, बारि बीचि इव गावहि बेदा ||
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा, निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ||
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा, सगुन उपासन कहहु मुनीसा ||
राम भगति जल मम मन मीना, किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ||
सोइ उपदेस कहहु करि दाया, निज नयनन्हि देखौं रघुराया ||
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा, तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ||
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा, खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ||
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी, सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ||
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा, मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा ||
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ, उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ||
अति संघरषन जौं कर कोई, अनल प्रगट चंदन ते होई ||

दोहा 
बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान,
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान ||१११(क) ||
क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान,
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ||१११(ख) ||

चौपाई 
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें, तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें ||
परद्रोही की होहिं निसंका, कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ||
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें, कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ||
काहू सुमति कि खल सँग जामी, सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ||
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक, सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक ||
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें, अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ||
पावन जस कि पुन्य बिनु होई, बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ||
लाभु कि किछु हरि भगति समाना, जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ||
हानि कि जग एहि सम किछु भाई, भजिअ न रामहि नर तनु पाई ||
अघ कि पिसुनता सम कछु आना, धर्म कि दया सरिस हरिजाना ||
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ, मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ ||
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा, तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ||
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि, उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ||
सत्य बचन बिस्वास न करही, बायस इव सबही ते डरही ||
सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला, सपदि होहि पच्छी चंडाला ||
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई, नहिं कछु भय न दीनता आई ||

दोहा 
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ,
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ ||११२(क) ||
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ||
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ||११२(ख) ||

चौपाई 
सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन, उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ||
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी, लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी ||
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना, मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ||
रिषि मम महत सीलता देखी, राम चरन बिस्वास बिसेषी ||
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई, सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ||
मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा, हरषित राममंत्र तब दीन्हा ||
बालकरूप राम कर ध्याना, कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ||
सुंदर सुखद मिहि अति भावा, सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ||
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा, रामचरितमानस तब भाषा ||
सादर मोहि यह कथा सुनाई, पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ||
रामचरित सर गुप्त सुहावा, संभु प्रसाद तात मैं पावा ||
तोहि निज भगत राम कर जानी, ताते मैं सब कहेउँ बखानी ||
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं, कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं ||
मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा, मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ||
निज कर कमल परसि मम सीसा, हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ||
राम भगति अबिरल उर तोरें, बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें ||

दोहा 
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान,
कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान ||११३(क) ||
जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत,
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ||११३(ख) ||

चौपाई 
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ, कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ ||
राम रहस्य ललित बिधि नाना, गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ||
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ, नित नव नेह राम पद होऊ ||
जो इच्छा करिहहु मन माहीं, हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ||
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा, ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा ||
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी, यह मम भगत कर्म मन बानी ||
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ, प्रेम मगन सब संसय गयऊ ||
करि बिनती मुनि आयसु पाई, पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ||
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ, प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ ||
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा, बीते कलप सात अरु बीसा ||
करउँ सदा रघुपति गुन गाना, सादर सुनहिं बिहंग सुजाना ||
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा, धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ||
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ, सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ ||
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा, निज आश्रम आवउँ खगभूपा ||
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई, काग देह जेहिं कारन पाई ||
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी, राम भगति महिमा अति भारी ||

दोहा  
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह,
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ||११४(क) ||

।। मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम ।।

दोहा 
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप,
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ||११४(ख) ||

चौपाई 
जे असि भगति जानि परिहरहीं, केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ||
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी, खोजत आकु फिरहिं पय लागी ||
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई, जे सुख चाहहिं आन उपाई ||
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी, पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ||
सुनि भसुंडि के बचन भवानी, बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ||
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं, संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ||
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा, तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ||
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही, कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ||
कहहिं संत मुनि बेद पुराना, नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ||
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं, नहिं आदरेहु भगति की नाईं ||
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता, सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ||
सुनि उरगारि बचन सुख माना, सादर बोलेउ काग सुजाना ||
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा ||
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर, सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ||
ग्यान बिराग जोग बिग्याना, ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ||
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती, अबला अबल सहज जड़ जाती ||

दोहा 
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ||
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ||११५(क) ||
सो -सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि,
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ||११५(ख) ||

चौपाई 
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ, बेद पुरान संत मत भाषउँ ||
मोह न नारि नारि कें रूपा, पन्नगारि यह रीति अनूपा ||
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ, नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ||
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी, माया खलु नर्तकी बिचारी ||
भगतिहि सानुकूल रघुराया, ताते तेहि डरपति अति माया ||
राम भगति निरुपम निरुपाधी, बसइ जासु उर सदा अबाधी ||
तेहि बिलोकि माया सकुचाई, करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ||
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी, जाचहीं भगति सकल सुख खानी ||

दोहा 
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ,
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ||११६(क) ||
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन,
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ||११६(ख) ||

चौपाई 
सुनहु तात यह अकथ कहानी, समुझत बनइ न जाइ बखानी ||
ईस्वर अंस जीव अबिनासी, चेतन अमल सहज सुख रासी ||
सो मायाबस भयउ गोसाईं, बँध्यो कीर मरकट की नाई ||
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई, जदपि मृषा छूटत कठिनई ||
तब ते जीव भयउ संसारी, छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ||
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई, छूट न अधिक अधिक अरुझाई ||
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी, ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ||
अस संजोग ईस जब करई, तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ||
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई, जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ||
जप तप ब्रत जम नियम अपारा, जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ||
तेइ तृन हरित चरै जब गाई, भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ||
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा, निर्मल मन अहीर निज दासा ||
परम धर्ममय पय दुहि भाई, अवटै अनल अकाम बिहाई ||
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै, धृति सम जावनु देइ जमावै ||
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी, दम अधार रजु सत्य सुबानी ||
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता, बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ||

दोहा 
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ,
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ||११७(क) ||
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ,
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ||११७(ख) ||
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि,
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ||११७(ग) ||

सोरठा 
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ||
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ||११७(घ) ||

चौपाई 
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा, दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ||
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा, तब भव मूल भेद भ्रम नासा ||
प्रबल अबिद्या कर परिवारा, मोह आदि तम मिटइ अपारा ||
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा, उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ||
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई, तब यह जीव कृतारथ होई ||
छोरत ग्रंथि जानि खगराया, बिघ्न अनेक करइ तब माया ||
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई, बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ||
कल बल छल करि जाहिं समीपा, अंचल बात बुझावहिं दीपा ||
होइ बुद्धि जौं परम सयानी, तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ||
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी, तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ||
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना, तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ||
आवत देखहिं बिषय बयारी, ते हठि देही कपाट उघारी ||
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई, तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ||
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा, बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ||
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई, बिषय भोग पर प्रीति सदाई ||
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी, तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ||

दोहा 
तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस,
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ||११८(क) ||
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक,
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ||११८(ख) ||

चौपाई 
ग्यान पंथ कृपान कै धारा, परत खगेस होइ नहिं बारा ||
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई, सो कैवल्य परम पद लहई ||
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद, संत पुरान निगम आगम बद ||
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई, अनइच्छित आवइ बरिआई ||
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई, कोटि भाँति कोउ करै उपाई ||
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई, रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ||
अस बिचारि हरि भगत सयाने, मुक्ति निरादर भगति लुभाने ||
भगति करत बिनु जतन प्रयासा, संसृति मूल अबिद्या नासा ||
भोजन करिअ तृपिति हित लागी, जिमि सो असन पचवै जठरागी ||
असि हरिभगति सुगम सुखदाई, को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ||

दोहा 
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ||
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ||११९(क) ||
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य,
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ||११९(ख) ||

चौपाई 
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई, सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ||
राम भगति चिंतामनि सुंदर, बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ||
परम प्रकास रूप दिन राती, नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ||
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा, लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ||
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई, हारहिं सकल सलभ समुदाई ||
खल कामादि निकट नहिं जाहीं, बसइ भगति जाके उर माहीं ||
गरल सुधासम अरि हित होई, तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ||
ब्यापहिं मानस रोग न भारी, जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ||
राम भगति मनि उर बस जाकें, दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ||
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं, जे मनि लागि सुजतन कराहीं ||
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई, राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ||
सुगम उपाय पाइबे केरे, नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ||
पावन पर्बत बेद पुराना, राम कथा रुचिराकर नाना ||
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी, ग्यान बिराग नयन उरगारी ||
भाव सहित खोजइ जो प्रानी, पाव भगति मनि सब सुख खानी ||
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा, राम ते अधिक राम कर दासा ||
राम सिंधु घन सज्जन धीरा, चंदन तरु हरि संत समीरा ||
सब कर फल हरि भगति सुहाई, सो बिनु संत न काहूँ पाई ||
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा, राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ||

दोहा 
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं,
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ||१२०(क) ||
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि,
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ||१२०(ख) ||

चौपाई 
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ, जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ||
नाथ मोहि निज सेवक जानी, सप्त प्रस्न कहहु बखानी ||
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा, सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ||
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी, सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ||
संत असंत मरम तुम्ह जानहु, तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ||
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला, कहहु कवन अघ परम कराला ||
मानस रोग कहहु समुझाई, तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ||
तात सुनहु सादर अति प्रीती, मैं संछेप कहउँ यह नीती ||
नर तन सम नहिं कवनिउ देही, जीव चराचर जाचत तेही ||
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी, ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ||
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर, होहिं बिषय रत मंद मंद तर ||
काँच किरिच बदलें ते लेही, कर ते डारि परस मनि देहीं ||
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं ||
पर उपकार बचन मन काया, संत सहज सुभाउ खगराया ||
संत सहहिं दुख परहित लागी, परदुख हेतु असंत अभागी ||
भूर्ज तरू सम संत कृपाला, परहित निति सह बिपति बिसाला ||
सन इव खल पर बंधन करई, खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ||
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी, अहि मूषक इव सुनु उरगारी ||
पर संपदा बिनासि नसाहीं, जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ||
दुष्ट उदय जग आरति हेतू, जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ||
संत उदय संतत सुखकारी, बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ||
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा, पर निंदा सम अघ न गरीसा ||
हर गुर निंदक दादुर होई, जन्म सहस्त्र पाव तन सोई ||
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि, जग जनमइ बायस सरीर धरि ||
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी, रौरव नरक परहिं ते प्रानी ||
होहिं उलूक संत निंदा रत, मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ||
सब के निंदा जे जड़ करहीं, ते चमगादुर होइ अवतरहीं ||
सुनहु तात अब मानस रोगा, जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ||
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला, तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ||
काम बात कफ लोभ अपारा, क्रोध पित्त नित छाती जारा ||
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई, उपजइ सन्यपात दुखदाई ||
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना, ते सब सूल नाम को जाना ||
ममता दादु कंडु इरषाई, हरष बिषाद गरह बहुताई ||
पर सुख देखि जरनि सोइ छई, कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ||
अहंकार अति दुखद डमरुआ, दंभ कपट मद मान नेहरुआ ||
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी, त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ||
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका, कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ||

दोहा 
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि,
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ||१२१(क) ||
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान,
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ||१२१(ख) ||

चौपाई 
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी, सोक हरष भय प्रीति बियोगी ||
मानक रोग कछुक मैं गाए, हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ||
जाने ते छीजहिं कछु पापी, नास न पावहिं जन परितापी ||
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे, मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ||
राम कृपाँ नासहि सब रोगा, जौं एहि भाँति बनै संयोगा ||
सदगुर बैद बचन बिस्वासा, संजम यह न बिषय कै आसा ||
रघुपति भगति सजीवन मूरी, अनूपान श्रद्धा मति पूरी ||
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं, नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ||
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई, जब उर बल बिराग अधिकाई ||
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई, बिषय आस दुर्बलता गई ||
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई, तब रह राम भगति उर छाई ||
सिव अज सुक सनकादिक नारद, जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ||
सब कर मत खगनायक एहा, करिअ राम पद पंकज नेहा ||
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं, रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ||
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा, बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ||
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला, जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ||
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना, बरु जामहिं सस सीस बिषाना ||
अंधकारु बरु रबिहि नसावै, राम बिमुख न जीव सुख पावै ||
हिम ते अनल प्रगट बरु होई, बिमुख राम सुख पाव न कोई ||

दोहा 
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल,
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ||१२२(क) ||
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन,
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ||१२२(ख) ||

श्लोक 
विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे,
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ||१२२(ग) ||

चौपाई 
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा, ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ||
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी, राम भजिअ सब काज बिसारी ||
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही, मोहि से सठ पर ममता जाही ||
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा, नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ||
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि, सुक सनकादि संभु मन भावनि ||
सत संगति दुर्लभ संसारा, निमिष दंड भरि एकउ बारा ||
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी, मैं रघुबीर भजन अधिकारी ||
सकुनाधम सब भाँति अपावन, प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ||

दोहा 
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन,
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ||१२३(क) ||
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ,
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ||१२३ ||

चौपाई 
सुमिरि राम के गुन गन नाना, पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ||
महिमा निगम नेति करि गाई, अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ||
सिव अज पूज्य चरन रघुराई, मो पर कृपा परम मृदुलाई ||
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ, केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ||
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी, कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ||
जोगी सूर सुतापस ग्यानी, धर्म निरत पंडित बिग्यानी ||
तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी, राम नमामि नमामि नमामी ||
सरन गएँ मो से अघ रासी, होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ||

दोहा 
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल,
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ||१२४(क) ||
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह,
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ||१२४(ख) ||

चौपाई 
मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी, सुनि रघुबीर भगति रस सानी ||
राम चरन नूतन रति भई, माया जनित बिपति सब गई ||
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए, मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ||
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा, बंदउँ तव पद बारहिं बारा ||
पूरन काम राम अनुरागी, तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ||
संत बिटप सरिता गिरि धरनी, पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ||
संत हृदय नवनीत समाना, कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ||
निज परिताप द्रवइ नवनीता, पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ||
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ, तव प्रसाद संसय सब गयऊ ||
जानेहु सदा मोहि निज किंकर, पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ||

दोहा 
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर,
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ||१२५(क) ||
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन,
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ||१२५(ख) ||

चौपाई 
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा, सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ||
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा, उपजइ प्रीति राम पद कंजा ||
मन क्रम बचन जनित अघ जाई, सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ||
तीर्थाटन साधन समुदाई, जोग बिराग ग्यान निपुनाई ||
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना, संजम दम जप तप मख नाना ||
भूत दया द्विज गुर सेवकाई, बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ||
जहँ लगि साधन बेद बखानी, सब कर फल हरि भगति भवानी ||
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई, राम कृपाँ काहूँ एक पाई ||

दोहा 
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास,
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ||१२६ ||

चौपाई 
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता, सोइ महि मंडित पंडित दाता ||
धर्म परायन सोइ कुल त्राता, राम चरन जा कर मन राता ||
नीति निपुन सोइ परम सयाना, श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ||
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा, जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ||
धन्य देस सो जहँ सुरसरी, धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ||
धन्य सो भूपु नीति जो करई, धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ||
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी, धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ||
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा, धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ||

दोहा 
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत,
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ||१२७ ||

चौपाई 
मति अनुरूप कथा मैं भाषी, जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ||
तव मन प्रीति देखि अधिकाई, तब मैं रघुपति कथा सुनाई ||
यह न कहिअ सठही हठसीलहि, जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ||
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि, जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ||
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ, सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ||
राम कथा के तेइ अधिकारी, जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ||
गुर पद प्रीति नीति रत जेई, द्विज सेवक अधिकारी तेई ||
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई, जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ||

दोहा 
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान,
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ||१२८ ||

चौपाई 
राम कथा गिरिजा मैं बरनी, कलि मल समनि मनोमल हरनी ||
संसृति रोग सजीवन मूरी, राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ||
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना, रघुपति भगति केर पंथाना ||
अति हरि कृपा जाहि पर होई, पाउँ देइ एहिं मारग सोई ||
मन कामना सिद्धि नर पावा, जे यह कथा कपट तजि गावा ||
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं, ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ||
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई, गिरिजा बोली गिरा सुहाई ||
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा, राम चरन उपजेउ नव नेहा ||

दोहा 
मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस,
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ||१२९ ||

चौपाई 
यह सुभ संभु उमा संबादा, सुख संपादन समन बिषादा ||
भव भंजन गंजन संदेहा, जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ||
राम उपासक जे जग माहीं, एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ||
रघुपति कृपाँ जथामति गावा, मैं यह पावन चरित सुहावा ||
एहिं कलिकाल न साधन दूजा, जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ||
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि, संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ||
जासु पतित पावन बड़ बाना, गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ||
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई, राम भजें गति केहिं नहिं पाई ||

छंद  
पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना,
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ||
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे,
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ||१ ||
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं,
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ||
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै,
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ||२ ||
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो,
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ||
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ,
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ||३ ||

दोहा 
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर,
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ||१३०(क) ||
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम,
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||१३०(ख) ||

श्लोक 
यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम,
मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम ||१ ||
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम,
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते
संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ||२ ||

।। मासपारायण, तीसवाँ विश्राम ।।

 ।। नवान्हपारायण, नवाँ विश्राम ।।

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः 
(उत्तरकाण्ड समाप्त)